Monday 4 February 2013

ज़िंदगी की किताब हाथ में ,
ज़िंदगी को पढ़ने लगे
जी रहे थे फिर से इस ज़िंदगी को
पन्नो को उलटते हुए
हर एक पन्ने पर दफन थी, पूरानी कहानियाँ
हर एक लफ्ज रो रहा था
गम का अफसाना सुनते हुए
कुछ दुख .... कुछ दर्द
कुछ अपनों के ... कुछ गैरो के
फिर से महसूस किए
वो सब कुछ अश्कों को बहते हुए
कुछ पाया ही नहीं हमने तो , ज़िंदगी से
बस खोया ही है .....
फिर भी हर राह पर
चलते रहे हम मुसकुराते हुए
अब थक गए है ....
पर मंज़िल तक जाना है
राह में मायूसी के कांटे
मगर फिर भी .....
चलते ही जाना है .......................

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