Wednesday, 11 April 2012

माता के मस्तक पे शत्रु, आतंक की आँधी चला रहा...
भाई तेरा छलनी होके, सीमा पे बेसुध पड़ा हुआ...
कब तक गाँधी आदर्शों से, यूँ झूठी आस दिखाओगे...
कब रक्त पियोगे दुश्मन का, कब अपनी प्यास बुझाओगे...
मैं कर्मों मे आज़ाद भगत, लक्ष्मी के लक्षण चाह रहा...
अब कुछ तो रक्त की बात चले, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
शृंगार पदों को छोड़ कवि, अब अंगारों की बात करें...
शोषित समाज के दबे हुए, कुछ अधिकारों की बात करें...
जब कलम चले तो मर्यादा, कुछ सत्य की उसमे गंध मिले...
इतिहास की काली पुस्तक मे, अब कलम की कालिख बंद मिले...
व्यापार कलम का छिन्न करे वो सत्य सुदर्शन चाह रहा...
कलम क्रांति आधार बने, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
इन नेताओं के डमरू पे कब तक बंदर बन उछ्लोगे...
कब तक आलस्य मे पड़े हुए दुर्भाग्य को अपने बिलखोगे..
कोई भाषा तो धर्म कोई, कोई जाति पे बाँटेगा...
कब घोर कुँहासे बुद्धि के तू ग्यान अनल से छाँटेगा...
इस राजनीति के विषधर का, मैं तुमसे मर्दन चाह रहा...
भारत से हृदय सुसज्जित हो, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
कुछ के तो उदर है भरे हुए, ज़्यादातर जनता भूखी है...
आँखों की नदियाँ भरी हुई, बाहर की नदियाँ सूखी है...
बचपन आँचल मे तड़प रहा, माँ की आँखें पथराई हैं...
क्या राष्ट्र सुविकसित बनने के, स्वपनों की ये परछाई है...
उनसे, जिनके घर भरे हुए, मैं थोड़ा कुंदन चाह रहा...
फिर स्वर्ण का पक्षी राष्ट्र बने, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
कब तक भगिनी माताओं के, अपमान सहोगे खड़े खड़े...
कब तक पुरुषार्थ यूँ रेंगेगा, औंधे मुँह भू पे पड़े पड़े...
कब तक भारत माता को यूँ निर्वस्त्र हो जलते देखोगे...
आख़िर कब तक सौभग्य सूर्य तुम अपना ढलते देखोगे...
पानी से भारी धमनियों मे कुछ रक्त के दर्शन चाह रहा...
अब तो संयम का हार तजो, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
deepak


Monday, 9 April 2012


निर्मल दरबार लगा कर लोगों की हर समस्‍या का आसान समाधान बताने वाले निर्मल बाबा को हर रोज चढ़ावे के तौर पर कितने पैसे मिलते हैं? हर दिन टीवी पर दिख कर दर्शकों और लोगों पर शक्तियों की कृपा बरपाने वाले बाबा जी को किसी ने अन्य बाबाओं की तरह चढ़ावा या पैसा लेकर पैर छूने के लिए मिलते नहीं देखा, लेकिन फिर भी उन्हें हर रोज़ करोड़ों रुपए मिल रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि बाबा जी की इस मोटी कमाई का एक बड़ा हिस्सा मीडिया को भी मिल रहा है।

हाल ही में अचानक निर्मल बाबा के भक्तों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। अगर इंटरनेट पर ही बाबा जी की वेबसाइट की लोकप्रियता का आकलन किया जाए तो पता चलता है कि एक साल में इसे देखने वालों की संख्या में 400 प्रतिशत से भी अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है। टीवी चैनलों पर उनके कार्यक्रम के दर्शकों की संख्या में भी भारी इज़ाफा हुआ है। हालांकि उनके समागम का प्रसारण देश विदेश के 35 से भी अधिक चैनलों पर होता है जिन्हें खासी लोकप्रियता भी मिल रही है, लेकिन उनके बीच कोई ब्रेक या विज्ञापन नहीं होता। न्यूज़ 24 पर पिछले हफ्ते उनके कार्यक्रम की लोकप्रियता 52 प्रतिशत रही जो शायद चैनल के किसी भी बुलेटिन या शो को नहीं मिल पाई है।

चैनलों को इन प्रसारणों के लिए मोटी कीमत भी मिल रही है जिसका नतीजा है कि उन्होंने अपने सिद्धांतों और क़ायद-क़ानूनों को भी ताक पर रख दिया है। नेटवर्क 18 ने तो बाबा के समागम का प्रसारण अपने खबरिया चैनलों के साथ-साथ हिस्ट्री चैनल पर भी चलवा रखा है। खबर है कि इन सब के लिए नेटवर्क 18 की झोली में हर साल करोड़ रुपए से भी ज्यादा बाबा के ‘आशीर्वाद’ के तौर पर पहुंच रहे हैं। कमोवेश हरेक छोटे-बड़े चैनल को उसकी हैसियत और पहुंच के हिसाब से तकरीबन 25,000 से 2,50,000 रुपए के बीच प्रति एपिसोड तक।


फेसबुक पर निर्मल बाबा का ये कार्टून खासा लोकप्रिय हो रहा है
अब जरा देखा जाए कि चढ़ावा नहीं लेने वाले निर्मल बाबा के पास इतनी बड़ी रकम आती कहां से है? महज़ डेढ़ दो सालों मे लोकप्रियता की बुलंदियों को छू रहे निर्मल बाबा हर समस्या का आसान सा उपाय बताते हैं और टीवी पर भी ‘कृपा’ बरसाते हैं। काले पर्स में पैसा रखना और अलमारी में दस के नोट की एक गड्डी रखना उनके प्रारंभिक सुझावों में से है। इसके अलावा जिस ‘निर्मल दरबार’ का प्रसारण दिखाया जाता है उसमें आ जाने भर से सभी कष्ट दूर कर देने की ‘गारंटी’ भी दी जाती है। लेकिन वहां आने की कीमत 2000 रुपये प्रति व्यक्ति है जो महीनों पहले बैंक के जरिए जमा करना पड़ता है। दो साल से अधिक उम्र के बच्चे से भी प्रवेश शुल्क लिया जाता है। अगर एक समागम मे 20 हजार लोग (अमूमन इससे ज्यादा लोग मौज़ूद होते हैं) भी आते हैं तो उनके द्वार जमा की गई राशि 4 करोड़ रुपये बैठती है।
 





http://www.facebook.com/l.php?u=http%3A%2F%2Fwww.mediadarbar.com%2F5391%2Fnirmal-baba-earns-huge-money%2F&h=sAQE3zIhsAQGov_qILoggtIjDP9kFTXF8GSYVhSeAPUfiGA


भारत एक भीड़ है और मैं उस भीड़ में शामिल धक्के खाता हशिए पर खड़ा एक नागरिक हूँ । सड़क ,रेल , हवाई अड्डा , अस्पताल , स्कूल , कचहरी , थाना , जेल , मंदिर , राशन दुकान , सिनेमा घर , नगर पालिका , ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी , टेलीफोन एक्सचेंज , बिजली ऑफिस , बाज़ार , श्मशान हर जगह भीड़ ही भीड़ है और मैं बेबस , निरीह , कतारबद्ध , धेर्य के साथ अपनी बारी का इंतज़ार में खड़ा हूँ । कभी कबार थोड़ी देर के लिए मेरा धैर्य जवाब देने लगता है और मैं बेकाबू होने लगता हूँ । लेकिन कभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता कि कतार से बाहर निकालकर अपना काम पहले करवाने की घौस जमा सकू। मेरी तरह तीन चौथाई से ज्यादा हिंदुस्तानी नागरिक एक भीड़ से ज्यादा कुछ नहीं है , उनकी कोई हैसियत नहीं   है कोई अहमियत नहीं है , कोई ताकत नहीं है । इस देश की सबसे बड़ी सच्चाई यही है कि यहाँ के तीन चौथाई से ज्यादा लोग लोकतन्त्र के हशिए पर रहते है । 
इस देश में हैसियत ,अहमियत और ताकत सिर्फ उन लोगो के पास है जिन्हे कभी कतार में नहीं लगना पड़ता , जिन्हे हर मनचाही चीज़ जरूरत से ज्यादा , उनकी मर्ज़ी होते ही सहजता से मिल जाती है । मेरे जैसे आम आदमी को हर जरूरी चीज़ जरूरत से कम मिल पाती है , वह भी समय और सहजता से नहीं मिलती । मुझे मालूम है कि संसाधनो और इनफ्रास्ट्रक्चर पर आबादी का दबाव बहुत अधिक है ,उपयोग करने वाले बहुत अधिक है इसलिए हर चीज़ के लिए आपाधापी मची है , और शायद इसी आपाधापी की वजह से भ्रष्टाचार भी बढ़ा है । लेकिन में इस आपाधापी और भ्रष्टाचार से परेशान हूँ । मैं चाहता हूँ कि उपलब्ध संसाधनो , सुविधाओं और अवसरो का न्यायपूर्ण वितरण सुनिशित करने का कोई सिस्टम हो , ताकि मेरे हिस्से की चीज़ मेरी जरूरत के समय सहजता से मुझे मिल जाए । जब तक सभी नागरिक के बीच संसाधनो , सुविधाओ और अवसरो की यह बराबरी कायम नहीं होती ,तब तक मुझे यह कहना सबसे बड़ा झूठ लगता है कि यहाँ लोकतन्त्र है । 

दरअसल हमारे देश में "लोक" यानी  पब्लिक नाम की ऐसी कोई चीज़ नहीं है , जिसका कोई तंत्र बन सके । यहा महज एक भीड़ है , जो बेबस है ,जो एकजुट नहीं है , जो अनुशासित नहीं है , जो अपनी ताकत को नहीं पहचानती , जो सही निर्णय लेना नहीं जानती । लोकतन्त्र हमारे लिए वह सपना है जो यदि साकार हो जाए तो भारत में स्वर्ग उतर आए । अब सरकार और प्रशासन , जनता का हुक्म माने , उसके हिसाब से चले  और खुद को जनता का सेवक समझे , और जनता भी ऐसी हो जो समझदार हो , जिम्मेदार हो अनुशासित हो और सबसे बढ़कर सरकार को अपने काबू में रखना जानती हो । 

जनता की भूमिका 
आम जन के पास सरकार को नियंत्रण रखने के साधन और अवसर बहुत कम है । चुनाव में वोट दाल देने के बाद अगले चुनाव से पहले हमारे पास सरकार और अपने जन प्रतिनिधियों के बारे में फैसले लेने का कोई मौका नहीं होता । चुनाव के समय भी हमारे पास विकल्प अत्यंत ही सीमित होते है । हमें सांपनाथ और नागनाथ के बीच किसी एक का चुनाव करना होता है । भारतीय लोकतन्त्र का चुनावी खेल एक मज़ाक से अधिक कुछ नहीं रहा है । यह चाहे कितना भी निष्पक्ष और साफ सुथरा हो ,तब भी सरकार के गठन में जनता के फैसले की भूमिका हशिए पर सिमटी होती है । आम चुनाव में औसत राष्ट्रीय मतदान शायद कभी साठ फीसदी से अधिक होता है और उन मतो में से सरकार बनाने वाली मुख्य पार्टी को शायद ही कभी तीस फीसदी से अधिक मत मिलता है । इस प्रकार केंद्र में जो सरकार का नेतृत्व करती है , उसे शायद ही कभी देश के एक चौथाई मतदाताओ का समर्थन मिल पाता है । 

सरकार के गठन का असली खेल तो मतो की गिनती हो जाने और चुनाव परिणाम की घोषणा हो जाने के बाद शुरू होता है । चुनावी समीकरण को देखते हुए सत्ता हथियाने के लिए परस्पर विरोधी विचारधारा वाले राजनीतिक डालो के बीच गठबंधन होता है । हम जाति ,मजहब ,क्षेत्रीयता आदि के नाम पर इस कदर बंटे हुए है कि राजनीतिक दल जनमत का अपने अपने पक्ष में आसानी से ध्रुवीकरण कर लेते है । भारतीय संसदीय लोकतन्त्र की मौजूदा चुनाव व्यवस्था में शायद ही कभी ऐसी सरकार बन पाएगी जिसे देश के 50 % से अधिक मतदाताओ का समर्थन मिल पाए । जब तक ऐसी कोई सरकार नहीं बनती तब तक हम नहीं कह सकते कि देश में लोकतन्त्र है । यह तब होगा जब भारत कि भीड़ , पब्लिक कि भूमिका में आएगी , समूहिक रूप से फैसले लेगी ,शत प्रतिशत मतदान करेगी और जिस पार्टी या प्रत्याशी को वोट देगी उसे स्पष्ट रूप से 50 % से अधिक वोट देगी । 
मीडिया की भूमिका
देश के अधिकतर नागरिको को इस बात की भी पर्याप्त जानकारी नहीं होती कि सरकार क्या कर रही है , कैसे कर रही है , और क्यों कर रही है । सरकार अपना दायित्व कहाँ निभा रही है , वह कहा गड़बड़ी कर रही है ,और वह ऐसा क्या कर रही है , इस पर नज़र रखने का जिम्मा प्रेस और मीडिया का है । यही वह अपना दायित्व ठीक से निभाए ,संसद और सरकार को जनता से जोड़े रखे , सरकार कि गड़बड़ियों को उजागर करे , जनता की आकांक्षाओ –अपेक्षाओ को सरकार तक पहुंचाए , तो लोकसेवाको और जनप्रतिनिधियों पर जनमत का अंकुश बना रहे । लेकिन वह पब्लिक या पाठक /दर्शक के लिए नहीं बल्कि सिर्फ अपने मालिक के मुनाफे के लिए करती है । मीडिया हमारे यहाँ लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ की भूमिका में नहीं रहा । वह एंटेरटाइनमेंट का एक कॉरपोरेट बिज़नस भर है , जिसे विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका की कतार में रखने की बजाय अब फिल्म और टीवी धारावाहिक के कारोबार के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए । मीडिया में संसद और सरकार के कामकाज के बारे में विश्लेषणपूरक जानकारी के लिए स्पेस लगातार सिकुड़ता जा रहा है । न्यूज़ चेनलों की बाढ़ सी आ गई ,लेकिन असली न्यूज़ काही ढूँढने पर नहीं मिल रही । “जल बीच मीन प्यासी ,मोही सुन सुन आवे हँसी “ वाली बात हो रही है । टीआरपी रेटिंग के खेल ,विज्ञापन बाज़ार के अनुचित दबाव और चैनलो के बीच नंबर वन बनने की होड़ ने मीडिया का स्तर काफी नीचे गिरा दिया है ।

सूचना का अधिकार
सूचना का अधिकार संबंधी कानून बनने के बाद जागरूक नागरिकों के पास काही गड़बड़ी दिखने पर और उससे खुद को प्रभावित महसूस करने की स्थिति में सरकार से सूचना मांगने का एक तरीका मिला है । लेकिन सूचना मांगने में हमारी जनता उतनी कुशल नहीं है ,जीतने कुशल सूचना को छिपाने में हमारे नौकरशाह है । इस कानून की भी अपनी सीमाएं है । इस कानून के बनने के बाद जनता को सूचना देने का जो अप्रिय और विशालकाय काम नौकरशाहों के मत्थे आ गया है , उनसे बचने की वे हर संभव कोशिश करते है । नतीजन , इस कानून के तहत अपीलों की संख्या बढ़ रही है , जिसके कारण सूचना आयोग भी कोर्ट की ही तरह सुस्त चाल से उन पर सुनवाई कर पा रहे है । वहाँ भी मामले की सुनवाई के लिए तारीख पर तारीख दी जाने लगी ,और सूचना पाने के लिए जनता को ठीक वैसी ही परेशानी होने लगी ,जैसे कि न्याय पाने के लिए होती है । फिर भी प्रेस और मीडिया की गैर ज़िम्मेदारी को देखते हुए जागरूक नागरिकों को ही सूचना के अधिकार के तहत जरूरी सूचनाए हासिल करके खुद ही सिटिज़न जर्नलिस्ट की भूमिका निभानी होगी । हमारे फेसबुक में भी जीतने साथी इस भूमिका को निभा सके ,उतना बेहतर होगा ।
न्यायपालिका की भूमिका
सरकार को संविधान और कानून की मर्यादा के भीतर रखने और उसके अनुरूप कार्य करने के लिए बाध्य करने का दायित्व न्यायपालिका का है , लेकिन उसका हाल भी किसी से छिपा नहीं है । हमारी अदालते वकीलो को अमीर बनाने के लिए बनी है । जनता को न्याय पाने के लिए बहुत ऊंची कीमत चुकनी पड़ती है । फिर भी न्याय मिल जाएगा ,इसकी कोई गारंटी नहीं होती । यहाँ देर भी होती है और अंधेर भी होता है । निचली स्तर की ज़्यादातर अदालते तो भ्रष्टाचार के बदनाम अड्डे में तब्दील हो चुकी है । असल में पुलिस , कानून और अदालतो का भय अपराधियों को नहीं बल्कि केवल शरीफ और निरीह नागरिक को रह गया है । वह भी इसलिए कि उन्हे इंसाफ की उम्मीद में अनगिनत परेशानी उठाकर , गाढ़ी कमाई लुटाते हुए ज़िंदगी के सारे काम काज छोडकर वर्षो तक अदालतों के जो चक्कर लगाने पड़ते है , उनसे आम जन बचना चाहता है । भारतीय न्यायपालिका को अगर अन्यायपालिका कहा जाए तो शायद कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ,क्योंकि वह न्याय जो समय पर ना मिले और जिसके लिए जनता को भरी भरकम कीमत चुकनी पड़े ,परेशानी उठानी पड़े यह वास्तव में एक अन्याय ही है । इसलिए जब तक फौजदारी के ऐसे मामले न हो कि उन्हे पंचायत ,आर्बिट्रेशन ,मिडीएसन ,काउंसिलिएसन ,लोक अदालत आदि जैसे वैकल्पिक न्याय के उपायो से सुलझाया न सके ,तब तक हमें न्याय पाने के लिए अदालतों का रुख करने से बचना बचना चाहिए ।

संसद की भूमिका
सरकार पर अंकुश रखने का सबसे प्रत्यक्ष दायित्व संसद का है । सांसदो के पास सरकार से प्रश्न पूछकर,विभिन्न संसदीय नियमो के तहत प्रस्ताव लाकर , लोक लेखा समिति एवं विभिन्न संसदीय स्थायी समितियों की रिपोर्टों ,आदि के माध्यम से कार्यपालिका को अपने नियंत्रण में रखने की शक्ति है । लेकिन भारतीय संसदीय प्रणाली में विधायिका और कार्यपालिका के बीच स्पष्ट पृथकरण नहीं होने के कारण सरकार पर यह नियंत्रण अत्यंत ढीला है । सरकार चूंकि बहुमत वाले दल या गठबंधन के संसद सदस्यों से ही बनती है , इसलिए लोकसभा के आधे से ज्यादा सांसद सरकार के हर सही गलत फैसले के साथ ही खड़े रहते है । सत्ता पक्ष के जो सांसद सरकार में मंत्री बन जाते है वे कार्यपालिका को नियंत्रण में रखने वाले सांसदो की भूमिका नहीं निभा पाते और जो सांसद मंत्री नहीं बन पाते वे कई बार प्रधानमंत्री या पार्टी अध्यक्ष को इतना परेशान नहीं करना चाहते कि भविष्य में उनके मंत्री बनने की संभावनाए धूमिल हो जाए । हालांकि गठबंधन सरकार के दौर में ऐसा भी होने लगा है कि सरकार के समर्थक दल या सत्ता पक्ष के सांसद भी कभी कबार विपक्षी तेवर अख़्तियार कर लेते है ,लेकिन सत्ता में बने रहने कि सुविधा का स्थायी मोह अक्सर उनके ऐसे आकस्मिक तेवरों पर हावी रहता है । ऐसे में सरकार कई बार ऐसे फैसले लेने में भी कामयाब हो जाती ,जो देश की जनता के हितो के विरुद्ध हो । यदि विधायिका पूरी तरह से कार्यपालिका से पृथक हो तो  सरकार पर अधिक प्रभावी ढंग से नियंत्रण रखना उसके लिए संभव हो सकेगा ।

जनता और जन प्रतिनिधियों के बीच संवाद की जरूरत
जनता के पास अपने सांसदो के कार्य एवं आचरण पर निगरानी रखने और उन्हे अपनी समस्या एवं शिकायतों से अवगत कराने का एक करगार मंच होना चाहिए । संसद की दर्शक दीर्घा में जनता के लिए बैठने का स्थान अत्यंत सीमित है और एक व्यक्ति को एक घंटे के लिए ही संसद का पास मिलता है । सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले इस देश की अधिकतर जनता अपने प्रतिनिधियों को करीब से कार्य करते हुए नहीं देख पाती , इसलिए इसके बारे में गुण –अवगुण के आधार पर राय नहीं बन पाती । हालांकि , कुछ वर्ष पहले ही लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की पहल पर संसदीय परिसर में लोकसभा टीवी की स्थापना का एक सराहनीय प्रयास किया गया है , जो ना केवल संसद की दर्शक दीर्घा के देशव्यापी टेली एक्सटेंशन की तरह काम करता है ,बल्कि संसद और जनता के बीच दोतरफा संवाद को भी बढ़ावा दे रहा है ।

कार्यपालिका की भूमिका
कार्यपालिका जनता के प्रति अपने दायित्व से लगातार पीछे हटती जा रही है , और वह निजीकरण और विदेश पूंजी के भरोसे उन्हे छोड़ देने की राह पर चल पड़ी है । वह जानबूजकर अपना काम लापरवाही और लेटलतीफी से करती है ताकि लोग उससे उम्मीद करने की बजाय निजी कंपनियों की सेवाओ पर भरोसा करने के लिए बाध्य हो जाएँ । हमारी सरकारे जनमत के बजाय अब निजी एवं विदेशी पूँजीपतियों के इशारे पर चलने लगी है । यदि सरकार अपने रवैये पर कायम रही तो जनता को आखिरकार सोचना पड़ेगा कि वह सरकार को टैक्स का भुगतान क्यों करे , जिसके बल पर मंत्रियों और नौकरशाहों के वेतन भत्ते और तमाम सुविधाएँ मिलती है । जनता में व्यापक जागरूकता ,अनुशासन एयर जनता कि संगठित सक्रियता से ही सच्चे लोकतन्त्र का हमारा सपना साकार हो सकता है । 

Sunday, 8 April 2012

तुम्हारे पाँवो के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं

मैं बेपनाह अँधेरे को सुबह कैसे कहूँ ,
मैं इन नज़ारो का अंधा तमाशबीन नहीं ।

तेरी जुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह ,
तू एक जलील सी गाली बेहतरीन नहीं ।


एक आदमी रोटी बेलता है , 
एक आदमी रोटी खाता है , 
एक तीसरा आदमी भी है ...
जो ना तो रोटी बेलता है ना रोटी खाता है 
वह सिर्फ रोटी से खेलता है , 
मैं पूछता हूँ कि यह तीसरा आदमी कौन है 
मेरे देश की संसद मौन है

Friday, 6 April 2012

सोने पर आयात शुल्क बढ़ाए जाने और गैर ब्रांडेड आभूषणों पर उत्पादन शुल्क लगाए जाने के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे सर्राफा व्‍यापारियों की हड़ताल वापस ले ली है.

व्‍यापारियों ने वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी से मुलाकात करने के बाद यह कदम उठाया.

सर्राफा व्‍यापारियों ने सोनिया गांधी से मुलाकात के दौरान मांग की कि बढ़ी एक्‍साइज ड्यूटी को वापस लेने का लिखित आश्‍वासन दिया जाए.


यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि स्वर्णकार इतने दिनों से हड़ताल पर है जिससे सरकार को भी तकरीबन ५०० करोड़ तक का राजस्व नुकसान भी हुआ है ,पर वित् मंत्री ने इतने दिनों से हड़ताली व्यापारियों कि तरफ ध्यान ही नहीं दिया .. आखिर में जब सोनिया गाँधी से गुहार करने के बाद इस मामले पर कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया आई है

देश की जनता की बात देश में जन्मे मंत्री नहीं समझ सकते और जनता की गुहार की तरफ ध्यान ही नहीं दिया जाता , तो आज स्थिति ऐसी हो गई की विदेश की महिला देश में बहु बन कर देश की राजनीती में आकर अपना रुतबा ऐसा जमा देती कि देश में जन्मे राजनितिक तो क्या प्रधानमंत्री और सरकार का पूरा मंत्री मंडल उनके आदेश के बिना कोई निर्णय नहीं ले रहा है .

यह बात कहना गलत नहीं होगा कि भारत के लोगो को गुलामी सहने की आदत हो गई है , वर्तमान सरकार के मंत्री अपने फायदे के लिए एक विदेशी महिला के गुलाम बन बैठे और आम जन तो बिना स्वार्थ के ही इस सरकार के गुलाम बने हुए है

अन्ना आन्दोलन करते है तो उनका साथ देने उतर जायेंगे ,बाबा रामदेव रैली करते तो साथ नारे लगा देंगे पर कोई अन्ना नहीं बनाना चाहता कोई रामदेव नहीं बनाना चाहता .

दोस्तों अपने हक़ के लिए अपने को ही लड़ना है ,अन्ना सेनापति है ,बाबा रामदेव सेनापति है पर सैनिक तो हम ही है ना , सैनिक के बिना सेनापति का क्या काम ... अगर देश का जवान यह सोचकर रहे की जब सेनापति आयेगा तब ही हम दुश्मन से लड़ेंगे तब तक नहीं तो क्या हमारा देश सुरक्षित रहेगा , क्या वो जवान मारा नहीं जायेगा सेनापति के इंतजार में ..
देश के सैनिक खुद बनो खुद के लिए खुद लड़ो