Saturday 17 November 2012

बवंडर में घूमती ज़िंदगी 
किसका करे यकीन ?
सोचती ये ज़िंदगी 
कभी अश्क तो कभी हंसी को सहेजती संवारती
और बनावटी ज़िंदगी में खुद को खोती ज़िंदगी 

आज छल अधिक है ,विश्वास खोया सा
दिल में कितने टुकड़े ,वो लहूलुहान सा
सपनों की राख़ ले ,विसर्जित करने को जाती
हर मोड़ पे धोखा खाती ,छली जाती ज़िंदगी 

फिर भी जैसे आदत हुई जा रही उसे
चलना है तो चली जा रही है ये
मजबूर है कैसे ना करे यकीन
हर बार टूट कर बिखरती जा रही है ज़िंदगी

प्यार ,साथ ,विश्वास ,जज़्बात ,स्नेह ,अपनत्व
जैसे भौतिकता के रंग में ही रंगे जा रहे है ये तत्व
 अनमोल का लगे मोल ,ढ़ोल में है पोल
लेकिन
ज़िंदगी की ओट में ,ज़िंदगी को छुपती ,ज़िंदगी को जीए जाती
हर एक ज़िंदगी 

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