Thursday 29 November 2012

"बुँदे..... ओस की"
घने अंधेरे में "छुप" कर बैठी हुई
शायद सो भी गई है
भीगो कर हरियाली को
अपने "आँसुओ" से
ना जाने कहाँ "गुम" हो भी गई
प्रभात की नयी किरणों के साथ
नयी कोपलों पर
सींप के चमकते "मोतियों" की तरह
ये छोटी छोटी बुँदे "ओस" की
अपने खेल में व्यस्त है
मन मेरा भी व्याकुल है ...
साथ खेलने को इनके
मगर क्या मैं समझ पाऊँगा
"इनको"
"इनके विधान को"
रंग सातों समेटे हुए
गहराइयों में अपनी
फिर भी संघर्षरत है...
अपने अस्तित्व को हर पल
कब तक साहस दिखाएगी ...मुस्कुराएगी
और ???
दिन चढ़ने की आहट ... प्रलय बन खड़ी है
यूं ... पालक झपकते ही काही साथ ले जाएगी "इन्हे"
मैं मूक दर्शक बन खड़ा हूँ टकटकी लगाए
इनकी विदाई पर सिर्फ "मायूस" हो सकता हूँ
मगर इस बात की खुशी है अब भी
कि
यह कल फिर आएगी ....मुस्कुराएगी
अपने छुटपन को दरकिनार कर
नया सवेरा लेकर आएगी
नयी ऊर्जा और विश्वास के साथ
ये बूंदे ओस की ........

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