Saturday, 9 June 2012

आज मन फिर उदास है
ना रात की है चाहत
ना सवेरे की आस है
आज दिल फिर उदास है

फिर उठ गया नकाब एक चेहरे से
फिर उतर गया एक मुखौटा
यह छिपे हुए जो चेहरे है
जब मेरे सामने आ जाते है
टूट जाता है भ्रम अपनेपन का
जब मुखौटे उतर जाते है 

फिर कुछ ऐसा आज हुआ है
एक खंजर ने मेरे दिल को छुआ है
जल रहा है मन ,उखड़ी हुई सी सांस है
आज फिर मन उदास है

गीला तो अपनों से कियाजाता है
गैरो से मुझे कोई सिकवा नहीं
अपने बैठे है गैर बन कर
गीला करू तो किससे करू
गैरों में भी कोई अपना नहीं

परछाइयाँ ही तो है
जो बुलाती है मुझे अपनी और
भागता हूँ मैं इनके पीछे
फिर से खाकर ठोकर
सिमट जाता हूँअपने आप में
समा लेता हूँ खुद को

इस उदासी में ,सन्नाटे में
यह अंधेरा मेरा वफादार है
मेरा अपना है ,राजदार है
इसका कोई चेहरा नहीं
नहीं पहनता कोई नकाब है

इस अंधेरे की गोद में आज
फिर पनाह की प्यास है
कोई संग नहीं है फिर से
आज फिर दिल उदास है

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