Wednesday, 29 February 2012

कुछ अनकहे लफ्जो का मतलब ढूँढत रहता हूँ मैं ,
जिंदगी आखिर क्या है ? कभी कभी यह सोचता रहता हूँ मैं !
ज़रूरत के हिसाब से अपनी सोच को बदलता रहता हूँ मैं
क्या था और अब क्या हूँ ! अपने आप में ही झाकते रहता हूँ मैं !
एक टूटे हुए खिलौने की तरह हूँ मैं जो किसी का मन ना बहला सका
दुनिया की इस भीड़ में अपने आप को ही ढूँढता रहता हूँ मैं !
ऐ दोस्त ! मुझे अब इस ख्वाब की दुनिया से ना जगा
हकीकत की दुनिया से अब हर वक़्त डरता रहता हूँ मैं !
अपने वही है जो बुरे वक़्त पर काम आ सके
अब रिश्तो को भी सिर्फ पैसो के दम से ही क्यूँ तोलते रहता हूँ मैं !
काश की संभाल जाता मैं अपने आप से ,तो एक भ्रम ही रह जाता
अपने ज़ख्मो को अपने ही अश्कों से अब धोते रहता हूँ मैं !
बुरे वक़्त और काली रात में ही
इंसान ज़िंदगी का सबसे बड़ा कीमती सबक सीख लेता है !
मेरे हाथ में कुछ भी नहीं ,पर फिर भी देख मेरी हिम्मत
वक़्त से बेखौफ होकर लड़ता रहता हूँ मैं !
इंसान का आखिरी मुकाम सिर्फ दो गज़ जमीन ही है
मौत को गले लगाने से पहले ना जाने कितनों का दिल तोड़ते रहता हूँ मैं !
मैं वो इंसान हूँ ,जो अपने आप को आईने में देख कर शर्मसार हो जाए ,
पर फिर भी अपने आप को बहुत कुछ समझता रहता हूँ मैं !
सच है कि ख़्वाहिश दीवानी ही है
कुछ बिखरे हुए लफ्जो में खुद कि पहचान को खोजते रहता हूँ मैं 

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