बैठा था नदी किनारे
आँखों में थे अनगिनत नज़ारे
देखा मैंने
नदी का
निर्मल पानी का कलरव कानों में
मधुर संगीत जैसे कोयल गाये
बहती है अपनी धुन में निरंतर
रास्ता रोके चट्टान तो बाजू से गुजर जाए
कहीं पर सिकुडना पड़ जाए तो सिकुड़ कर बहे
कही आज़ाद होकर अपनी मंजिल की और बढ़ जाए
कही झरने से गिरती होगी
धड़ाम ...
पर कभी ना अपना दर्द किसी को दिखाये '
अहंकार मन में तनिक भी नहीं
परोपकार कर
सबका जीवन आनंदमय बनाए ।
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