बचपन में हम शरारत बहुत किया करते थे | एक दिन मुझसे दादा जी की घड़ी टूट गयी | मैंने दादा जी से कहा " दादा जी मुझसे आपके घड़ी टूट गयी " दादा जी ने कहा " कोई बात नहीं ठीक करवा देंगे तेरे पापा | वैसे तुमने कोई जानबूझ कर तो नहीं तोड़ी ना | पर दादा जी जब तक घड़ी ठीक नहीं होगी अप टाइम कैसे देखोगे ? मैंने पूछा | अरे बेटा हम तो बिना घड़ी देखे सही वक़्त बता देते है | मैंने कहा " वो कैसे दादा जी "| दादा जी कहा " यहाँ बैठ " | मैं दादा जी के पास बैठ गया | दादा जी ने कहा - बेटा पहले ज़माने के लोग घड़ी नहीं पहनते थे ,इसके बावजूद उनका जीवन समयबद्ध था ,उनका सोना -जागना,खाना -पीना ,सब कुछ वक़्त पर हो जाता था | इसका उल्टा आज के लोगो का जीवन पूरा अस्त व्यस्त है | सोने के लिए नींद की गोली लेनी पड़ती ,और उठने के लिए अलार्म रखना पड़ता | आज हर घर में दिवार से टंगी घड़ी देखने को मिल जाएगी , हर व्यक्ति की कलाई पर घड़ी बंधी होगी | पर आज यह घड़ी सिर्फ एक शोभा बढ़ाने मात्र की वास्तु रह गयी है | जबकि घड़ी आदमी को पल -पल चेताती है कि ज़िन्दगी घड़ी दो घड़ी से ज्यादा नहीं है बंधू | अतः हम शांत चित होकर प्रभु को याद करते रहे ,परोपकार करते रहे , पुन्य करते रहे, वक़्त का मोल समझो,, वरना हाथ कि घड़ी हाथ में रह जाएगी और जीवन की घड़ी बंद हो जाएगी | मैं समझ गया कि असली घड़ी तो हमारी ज़िन्दगी है जिसका क्षण क्षण बिता जा रहा है |
:-राजू सीरवी (राठौड़)
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