Wednesday 30 May 2012


 

 फिर भी लोग कहे "मेरा देश महान "

संसद में सब चोर बसे है
ठग बसे है थानो में
कुर्सी पर ऐसे है बैठे जैसे
जैसे साँप लिपटे हो चन्दन में
मीडिया अब क्या करे बखान
फिर भी लोग कहे "मेरा भारत महान "

कहीं आग लगी कहीं धुआ उठा
कहीं भूकंप का कहर टूटा
दान दाताओ की सूची अखबार में
पैसा सब दलालो ने लूटा
सरकार का बिक जाता नाम
फिर भी लोग कहे "मेरा देश महान "

गाँव में बिजली के खंभे तार
लाइट नाम की चीज़ नहीं
भाखड़ा टिहरी बांध बने है
नालों में फिर भी पानी नहीं
पानी की लंबी लगी कतार
फिर भी लोग कहे "मेरा भारत महान "

पति -पत्नी का रिश्ता अजीब है
साल के बाद तलाक जरूर है
बेटा बाप को बाप ना समझे
बाप के पैसो का बहुत गरुर है
यह सब देख क्या करे भगवान
फिर भी लोग कहे"मेरा भारत महान "

महंगाई आसमान को छूती
अजीब है सेंसेक्स का खेल
पैसे की कदर नहीं है भाई
डॉलर का चढ गया है तेज
जीना अब तो हो गया हराम
फिर भी लोग कहे "मेरा भारत महान "

उध्योगपति तो खूब चढ़े है
कर्मचारी का भविष्य लटका है
ITका है बोलबाला
काम भी तो क्या फटका है
RECESSION मिल गया है नाम
फिर भी लोग कहे "मेरा भारत महान "

रोजगार की उजड़ी दुनिया
माध्यम वर्ग के लोगो की
घर का खर्चा कैसे चलेगा
फिकर लगी है रोटी की
भगवान भी अब है हैरान
फिर भी लोग कहे "मेरा भारत महान "

माँ बाप ने तुमको जनम दिया
दुनिया के रंग दिखाये है
ढलती उम्र देख अब उनकी
वृद्धाश्रम में बैठाया है
माता का होता है अपमान
फिर भी लोग कहे "मेरा भारत महान "

राजनीति क्या खूब जो रही
हर नेता भूखा नंगा है
देश चलाऊ कुर्सी के लिए
गली मोहल्ले में दंगा होता
नारा गुंजा बिना शांति का
दे दो हमें शांति का दाम
फिर भी लोग कहे  "मेरा भारत महान "

Tuesday 29 May 2012


शाम का धुंधलका छाने लगा है,
चलो चलें कहीं ऐसे सफ़र पर,
जहां न हो अंधेरों का साम्राज्‍य, जहां रोशनी की किरणें,
हमें अह्लादित करें, चलो चलें कहीं ऐसे सफ़र पर।
घुंघरुओं की छनछन के साथ, बज उठे शहनाई,
जहां की हर सुबह, खुबसूरती से भरी हो,
जहां हर कोई अपना हो, जहां बच्‍चों का खिलखिलाना,
दे जाए हमें जीवन गीत, चलो चलें कहीं ऐसे सफर पर।
जहां हर कोई गाए-गुनगुनाए, जहां किसी भी दर्द की आवाज न हो,
हर पल जहां मधुमास हो, हर पर जीने का एहसास हो,
जब कोई गज़ल महके कहीं, तो हर कोई महसूस करे उसकी सुगंध,
चलों चलें कहीं ऐसे सफर पर।
एक बचपन का जमाना था
खुशियों का खज़ाना था
चाहत चाँद को पाने की
दिल तितली का दीवाना था
खबर ना थी कभी सुबह की
और ना ही शाम का ठिकाना था
 थक हार के आना स्कूल से
पर खेलने भी जाना था
दादी की कहानी थी
पारियों का फसाना था
बारिश में कागज़ की नाव थी
हर मौसम सुहाना था
हर खेल में साथी थे
हर रिश्ता निभाना था
गम की जुबां ना होती थी
ना ही ज़ख्मो का पैमाना था
रोने की वजह ना थी
ना हंसने का बहाना था
अब नहीं रही वो ज़िंदगी
जैसा बचपन का ज़माना था

Monday 28 May 2012

कहीं तो .......

 कहीं तो ....... कहीं तो
होगी वो
दुनिया जहां तू मेरे साथ है

जहां मैं , जहां तू
और जहां ,बस तेरे मेरे जज़्बात है
होगी जहां सुबह तेरी ,
पलकों की , किरण में
लोरी जहां चाँद की
सुने तेरी बाहों में

जाने ना कहाँ वो दुनिया है
जाने ना वो है भी या नहीं
जहां मेरी ज़िंदगी मुझे
इतनी खफा नहीं

Sunday 27 May 2012


है खुश कभी तो कभी कुछ खफा खफा
ज़िंदगी है एक तजुर्बा ,ज़रा कर के देखिये
दूसरों की गलतियों से सीखने में है क्या
खुद अपनी नई खताएँ करके देखिये
भीड़ में ना जाने कहाँ ओझल हो गए हो
कभी कोई नई राह पकड़ कर देखिये
बेतुकि बेरंग सी हो गई है ज़िंदगी
घर की नहीं ,दिल की दीवारें रंग कर देखिये
सागर की सतह पर होती है लहरें कुछ अलग
कभी किसी के दिल की गहराई में उतर कर देखिये
लैला मजनू के किस्से अब हुए पुराने
दिल अपना भी किसी से लगा कर देखिये 
क्यूँ भरने नहीं देते दिल को अपने सपनों की उड़ान
कभी बारिशों में कागज़ की नाव चलाकर देखिये
काम पड़ने पर याद करते है सभी
कभी बिना मतलब किसी दोस्त को याद करके देखिये
गाड़ी ,धन -दौलत ,ऐशों आराम के पीछे भागते रहे
कभी माँ की गोद में दो पल सर रखकर देखिये
ना जाने किन चिंताओं में खोये रहते हो हरदम
कभी दूसरों के दुखो को जानकार देखिये
किस रफ्तार से जिये जा रहे हो ज़िंदगी
कभी रात भर जाग कर तारे गिन कर देखिये
सहमे सहमे जीने में रखा क्या है
कभी हौसला बढ़ाकर जीकर देखिये
रेत के घरोंदे बनाते थे बचपन में
आज भी बेफिकरी से जी कर देखिये
स्कूल के वो दिन भुला दिये कैसे
कभी तस्वीरों से धूल हटाकर देखिये
मरना है आखिर हर किसी को एक दिन
कभी इस खौफ को भूलकर जीकर देखिये

Saturday 26 May 2012

नज़रिया ज़िंदगी का सरल बना कर देखो
जाति और धर्म नहीं ,व्यक्ति का बस दिल देखो


जो दिख रहा है दूर से सफ़ेद पत्थर सा
क्या पता मोम हो ,तुम प्यार से छूकर देखो

किसी की आँख से दिल तक अगर पहुंचाना हो
अपनी धुन में बढ़ो ,मत मील के पत्थर को देखो





किसी की नज़ारे -इनायत नहीं होती यू ही
खुद की औकात भी उसके मुक़ाबले देखो


तेरी ही रार ठनी रहती क्यों आजू बाजू
कभी फुरसत मिले तो खुद से झगड़ कर देखो

सफल लोगो को देख कर कभी कुंठित ना बनो
फूलों के नीचे बिछा काँटों का बिस्तर देखो

कोहिनूर आसमान से खुद ब खुद बरसते नहीं
खान में जाकर कभी खाक छान कर देखो

जब तलक पंख है नाज़ुक ,उड़ान छोटी भरो
ख्वाबों को तुम कई किस्तों में बाँट कर देखो

चुक गया मान ,बूढ़े पेड़ो से दूरी ना करो
ना सही फल ,महज़ छाया सुकून लेकर देखो

जहां की सबसे उम्दा गजल जब पढ़ना चाहो
भर के महबूब को बाहों में , आंखो में देखो

अक्सर मीडिया इंटरव्यू लेता है लोगो का और नेताओ का चलो आज मीडिया का ही इंटरव्यू लिया जाए  स्टिंग ऑपरेशन के बारे में जिनको वो बढ़ा चढ़ा कर बताते है ॥ 

जनता - स्टिंग ऑपरेशन हमेशा एक धर्म विशेष के लिए ही क्यो ?
मीडिया-ये अंदर की बात है ताकि नेताओ से शाबाशी मिले। आजकल मीडिया “कोंपीटीशन” कितना बढ़ गया हे ना ? मार्केट मे बने रहने के लिए रिस्क लेना पड़ता है बॉस । 
जनता - कभी ऐसे भी स्टिंग ऑपरेशन करो जहा कौनसी फलाना अभिनेत्री कौनसे सेक्स रेकेट मे लिप्त है, या पहले थी ? जो कभी कभी टी वी पर सच्चाई की बाते भी करती है, फिर “डील″ के ऊपर “डील साइन” करती है, पहले हजारो मे ? अब लाखों मे ?
मीडिया-नहीं, ऐसा नहीं कर सकते है, क्योकि इससे हमारे अभिनेताओ से संबंध खराब होते है, ये तो सभी को पता है, बताने की क्या जरूरत। वेसे भी नाम और “केरियर” खराब होगा उनका । अभी पिछले दिनों एक नौकरनी ने इज्जतदार अभिनेता पर बलात्कार के आरोप लगाए थे । आखिर सबको सच्चाई पता चल गयी ना ? (सबको पता है नौकरानी शायद करोड़ पति हो गयी होगी ) 
जनता - कभी ऐसे भी स्टिंग ऑपरेशन करो जहा कौनसी मॉडल पैसो के लिए किस हद तक जाती है?, कौनसे कौनसे नशे के रेकेटों से जुड़ी है? ढोंगी स्वयंवर रचाने वाली पवित्र और तथाकथित “नाबालिग कन्याओं” को भी आपके पवित्र सुधारक पर्दे पर लाओ ?
मीडिया - नहीं, क्योकि इनके बिना बढ़िया रेटिंग नहीं मिलती ना, हमे उनके कार्यक्रम तो दिखाने पड़ते हे ना, वेसे भी इंडिया मे एक वर्ग एसा भी है जो यह भी नहीं जानता है की भारत का राष्ट्रपति कौन है लेकीन उसे यह जरूर पता है की फलाना सुपर स्टार कहाँ रहता है और उसकी कौनसी फिल्म आ रही है और वे झोपड्पट्टी मे भी टीवी जरूर देखते है, भले ही एक समय का खाना नसीब न हो ? उनका भी तो ख़्याल रखना पड़ता है ना ? और फालतू समय मे विज्ञापन लाने के लिए गाना बजाना / सब दिखाना होता है ना ? वेसे आपको इनसे क्या दुश्मनी है ? वे तो अपना केरियर बनाती है ना ? और वेसे भी वे सभी सेकुलर है आपकी तरह । (भले ही समाज से, युवाओ को उससे नुकसान हो, वे बिगड़ें, उन्हे कुछ भी हासिल न हो, सिवाय बरबादी के ) 
जनता - अच्छा, क्या आप जनता को बताएँगे की कितनी अभिनेत्रियाँ, “आइटम गर्ल″, सेक्स रेकेटों और प्रोस्टिक्यूशन मे पकड़ी गयी और पुलिस के इतिहास मे वे दर्ज हो गयी, लेकिन मूर्ख जनता को आपने बताया ही नहीं। क्या ये समाज सुधार और सूचना अधिकार का हिस्सा नहीं है ? हर आदमी थोड़े ही rti के ऑफिस मे जाएगा ?
मीडिया - क्या मुसीबत है बार बार एक जेसे ही सवाल….। नहीं, क्योकि इससे उनकी बदनामी होगी और भविष्य और “केरियर” पर खतरा पड़ेगा और हमारे “बिज़नस” पर बुरा असर पड़ेगा । 
जनता - कभी ऐसे भी ऑपरेशन करो जहा पर विदेशी कम्पनियाँ भी अवेध ( सरकारी हिसाब से वेध ) कारोबार मे शामिल हो कर मिलावटी और वस्तुए बाजार मे खपाती हो ? और ऊपर से वे ब्रांड और विज्ञापन का महंगा चोला लगाते है ( ताकि शुद्ध लगे ), लेकिन दुसरें शुद्ध काम कर के भी उतना मुनाफा नहीं कमा पाते या पकड़े जाते है !
मीडिया - अरे पागल हो गए हो, विदेशी कंपनियो पर केसे लांछन लगा सकते हो, उनसे तो हमे आमदनी होती है, हम विज्ञापनो के लिए किसी भी हद तक जा सकते है चाहे सुबह के समय मे धार्मिक प्रवचन के साथ साथ कोंडम की विज्ञापन हो, या शाम को परिवार के साथ मे मिल कर खाने के समय पैड के विज्ञापन हो (भले ही वे कंपनियाँ विज्ञापन मे मिलावट करती हो ) 
जनता - कभी ऐसा भी बताओ जनता को की ये हमारे देश भक्त क्रिकेटर, और अभिनेता जो बड़े उपदेश देते फिरते है, टिप्पणियाँ करते है, जिसमे से कितनों ने घर पर ए-के ४७ राइफलों को भी नजदीक से देखा हो, और किसी ने तो भारत मे प्रतिबंदित जानवर का शिकार कर के खाया हो । भले ही वे कोक, पेप्सी, फेंटा, मिरिंडा, स्प्राइट, कॉलगेट, पेप्सोडेंट, वोक्स वेगन, हुंडाई, लक्स, डेटोल, जॉन्सन एंड जॉन्सन, लेज, कुरकुरे, बूस्ट, एडीडास जेसे विदेशी ब्रँडो के विज्ञापन करते हे । भले ही भारत मे साल मे २५० से अधिक घरेलू इकाइया बंद हो जाती हो । रास्ते पर आ जाते है स्वदेशी । तब इनकी देश भक्ति कहाँ जाती है । क्या उनको पता नहीं है इस विचार के बारें मे, लेकिन ऐसे भी लोग है इस देश मे जो पूरी उम्र स्वदेश की सेवा मे लगा देते है बिना बीवी बच्चो के, ऐशों आराम के, लेकिन वे गुमनाम ही रहते है पूरी उम्र… क्यो ?
मीडिया -“वॉट नॉनसेन्स”, अरे क्या तुम भी रूढ़िवादी हो, सांप्रदायिक ? जब जनता विदेशी समान खरीद रही है तो भला इन्हे विज्ञापन से क्या परेशानी है ? भैया ये लोग स्टार है और हम लोग इनकी पेरो की जुतिया, समझे । ये लोग जो करे वो हमे मानना पड़ेगा । जो बोले वह करना पड़ेगा । अरे भैया ये स्वदेश-विदेश सिर्फ फिल्मों के नाम के रूप मे अच्छे लगते है, क्या होता है ये स्वदेशी पालन ? यहा दुनिया ग्लोबल हो रही है और ये पूरी उम्र स्वदेश से जी लगाए फिरते है, खाओ पियो ऐश करो ! खुद खाओ दूसरों को खिलाओ ! एक बात और, स्टार हमसे और हम स्टार से है, हमारे बिना स्टार-विस्टार कुछ नहीं होता है । 
जनता - अरे लेकिन सरकारी लेब ने तो यह सिद्ध कर दिया हे की ये कोल्ड ड्रिंक जहर है फिर भी ये लोग प्रचार करते है और देश भक्त बनते है, अरे ये कोल्ड ड्रिंक पानी का कितना पीने के पानी का कितना दुरपयोग करती है, और ये सेलेब्रिटी लोग “पानी-बचाओ” विज्ञापन करते है, भाई ये बात तो हमे हजम नहीं हुई |
जनता - अरे भाई तुम्हें इनसे क्या एलर्जी हे ? प्रश्न पूछना हे की नहीं, तो ऐसे प्रश्न मत ना पूछो हमे । मेरे पास समय कम हे । 
जनता - अच्छा आप ऐसा स्टिंग ऑपरेशन करो जहां पर लड़कियां ग्रुप बना कर रेव / सेक्स / नशा पार्टियां करती है और मोबाइल मे पॉर्न फिल्मे रखती / देखती है। इससे तो समाज का और माँ बाप का काफी भला होगा । 
मीडिया - छोड़िए ना, ये तो सभी करते है, ये तो आजकल आम है, ये तो काम ये महिला आयोग का और पुलिस का है, और ये जवानी मे नहीं करेंगे तो बुढ़ापे मे करेंगे ? क्या आपने कॉलेज मे ऐसा नहीं किया होगा भला ? हमें तो ऐसी खबर दो जहा पर शराबी महिलाओ / लड़कियों की हिन्दू ग्रुप पिटाई कर रहे है ( इससे सरकार मे हमारा रुतबा बढ़ेगा ), मासूम, बिचारे और औरतों को छेड़ते हुए मनचलो की जनता पिटाई कर रही है । मॉरल पुलिस बनने का अधिकार सिर्फ हमे दिया है सरकार ने, तभी तो आजकल कम से कम घोटाले उजागर हो रहे है, अब हमारा काम स्टिंग ऑपरेशन कर के रेटिंग कमाना हे तो केसे भी कर के किसी न किसी का तो स्टिंग करना पड़ेगा ना ? तो हमने किसी धर्म विशेष को ही चुना जो बहुत सॉफ्ट है, जिसमे सब सेकुलर और उदार होते है, किसी को कुछ नहीं कहते है, एसी खबरों को खबरे कहते है। और इनके स्ट्रिंग ऑपरेशन करने के विदेशो से करोडो मिलते है  
जनता - क्या आप कॉमनवेल्थ के घोटालो का स्टिंग ऑपरेशन करेंगे ?
मीडिया - नहीं, नहीं, ये बहुत “सेंसिटिव्ह मेटर” है, देश का नाम बदनाम होगा |  
जनता - कभी किसी मिशनरिज केन्द्रो का भी स्टिंग ऑपरेशन करो, पता करो ना की वहाँ पर क्या चल रहा है और हर साल मे कितने हिन्दू से ईसाई बनाए जा रहें है ? उनके आगे के क्या क्या उद्येश्य है ? आगे कितना टार्गेट है, रोज रेलगाड़ियो मे कितने मिशनरियों को भेजा जाता है लोगो को उपदेश देने के लिए ?
मीडिया -नहीं उन्होने तो हमे न. 1 बनाया है, क्योकि हम उनके खिलाफ हमेशा अच्छी खबरें देते है, क्या आपको पता नहीं है ईसाइयो पर हमले हुए थे तब हमने उनका कितना दिल जीता था ? यही कारण हे की आजकल अँग्रेजी चेनलों की संख्या बढ़ रही है ( धर्म प्रचार को लेकर ) वेसे भी ये भी कोई महत्वपूर्ण विषय नहीं है, आजकल धर्मांतरण तो आम है। सेकुलरिस्म का हिस्सा है, सिंह से शाह, जमनालाल से जोसफ, लल्लू से लॉ, बबलू से बौबी. इसमे कैसी बुराई है ? दुनिया ग्लोबल हो रही है भाई साहब । कहाँ हो आप ? और फिर चर्च हमे पैसा देना बंद कर देगा भाई और मैडम की नाराजगी अलग |  
जनता - कभी उन आतंकवादी स्थलो का भी स्टिंग ऑपरेशन कर लिया करो जहा पर हमलो की योजनाए बनती है, जहा पर हथियारो के झखीरे है, दंगे मे अचानक कहाँ से ए-के ४७ राइफलें निकल आती है ? कभी इंडियन मुजाहिद्दीन जेसे और भी नेटवर्क का भी पर्दा फ़ाश करो ।
मीडिया - ये काम तो सुरक्षा एजेंसियो का है हमारा नहीं ! और उनमे हमारा कोई “फाइदा” नहीं है, उल्टा नुकसान है…. !…?? ( कोई विज्ञापन नहीं देगा रेटिंग गिर जाएगी, हमारी ) साउदी अरब पैसा देना बंद कर देगा सो अलग |  
जनता - ऐसे स्थानो का भी स्टिंग करो जहा पर जर्मन बेकरी के जैसे न जाने कितने षड्यंत्र होते है, और कसाब जेसे पहले से ही हथियारो के ढेर छुपाते है, आने से पहले ? माफ करना मैं मालेगांव के आरोपियों का नाम लेना भूल गया, नहीं तो हमें कट्टर कहेंगे आप, मैं भी सेकुलर हूँ । सलमान खान की कसम ! सेकुलर हूँ हम  !

मीडिया - हमने कहाँ ना, ये तो सब काम सुरक्षा एजेंसियो का है ? हमे उनसे खतरा मोल नहीं लेना, हमारे अस्तित्व का प्रश्न है । 
जनता -तो, ऐसे जगह स्टिंग ऑपरेशन कर के दिखाओ जहा पर किसी धर्म विशेष के लोगो को ही अनुमति है जनता को बताओ की वहाँ ऐसा क्या हो रहा है की वह स्थान दूसरे धर्म के लोगो के लिए प्रतिबंधित है, हिन्दू धार्मिक स्थल ( माफ करना बाकी धर्म स्थान ) तो सेकुलरिस्म की जीती जागती मिसालें होते है

मीडिया - नहीं हम ऐसा नहीं कर सकते ये बहुत “सेंसिटिव्ह मेटर” है, इससे उनकी धार्मिक भावनाए आहात होती है, वेसे भी वे सताये हुये, निर्दोष है । ये हमारे “स्ट्रेटेजी” मे नहीं है, इससे सिर्फ नुकसान ही नुकसान है, कोई दर्शक इसे पसंद नहीं करेगा । ( एसे मामलो मे देश पूरा सेकुलर हो जाता है ) 
जनता - कभी कश्मीर के अलगाव वादी नेताओ का स्टिंग ऑपरेशन करो जो सरकारी खर्चे पर चुपके चुपके अफजल गुरु जेसे देश-भक्तो से मिलने जाते है
मीडिया - हमें सरकार ने अनुमति नहीं दी, ये काम सरकार का है किसको कब सजा देनी है ! वेसे भी अभी तक अफजल का जुर्म साबित नहीं हुआ है ? है ना ? और बेचारा कसब को तो मंद वश किया गया था |  
जनता - उन अंधेरे स्कूलों मे जहा सिर्फ रात मे ही उजाला होता है, स्टिंग ऑपरेशन करो उन देश द्रोहीयों का जो मुंबई पर हमले के तुरंत बाद रिस्वत-खोर , फिक्सरों, पाकिस्तानी खिलाड़ियो को याद करते है, उनका स्टिंग ऑपरेशन करो की वे उनसे कब और कहाँ बाते करते है ?
मीडिया - क्या बात कर रहे हो, बात ही तो की हे उन्होने कौनसा हमला कर दिया है, वे तो बड़े स्टार है, हमारे चेनल पर बड़े बड़े विज्ञापन उनके ही तो आते है, और हमें वे सपोर्ट करते है वे, वे तो सेकुलर हे, कौनसे देश-द्रोही है । क्या आपको दिखता नहीं वे टेक्स भरते है सरकार को, करोड़ों का, हमारी कितनी आमदनी होती है उनसे । हमें उनसे संबंध खराब नहीं करने है । हम उनसे है और वे हमसे ! 
जनता - बस एक प्रश्न, “सिर्फ” एक प्रश्न ।  
आप के सुबह सुबह के कार्यक्रम मे आने वाले ज्योतिष विद्वानो, फेंग शुई, वास्तु शास्त्र वालों का भी स्टिंग कीजिये ना ? उनमे से कितनों के ऊपर लेनदारी, ठगी और जमीन से जुड़े केस चल रहे है ?

मीडिया - ????…. नहीं वे साफ होते है, हम तो उन्हे चुनी हुई पत्तियाँ की तरह और खास चुने हुए बगानों से हम चुन चुन कर लाते है, आप बकवास कर रहे है…… !

“आपका बहुत बहुत धन्यवाद सेकुलर मीडिया भाई 
यह है देश का मीडिया जिसे लोकतन्त्र का चौतहआ स्तम्भ भी कहते है ... आज यह स्तम्भ हम आम जन पर ही गिर रहा है कुचलने के लिए

Thursday 24 May 2012

आम आदमी का लोकतन्त्र कहाँ है ?

देश में हर गरीब आम नागरिक की श्रेणी में आता है , और वही आम नागरिक चुनाव के वक़्त खास आदमी बन जाता है । 
समाज में आम आदमी की भूमिका वहीं तक है जहां से खास आदमी की भूमिका शुरू होती है। यह खास आदमी होता आम आदमी जैसा ही है, किंतु उसका 'शाही रूतबा' उसे आम से खास बना देता है। 
इस अवधारणा को नहीं मानता कि देश आम आदमी के सहारे चलता है। देश खास आदमी के 'आदेश' पर चलता है। आम आदमी खास आदमी के सामने कहीं नहीं ठहरता। या कहें कि उसे ठहरने नहीं दिया जाता। 

आज आम आदमी खास आदमी की शर्तों पर ही जीता है। यह हकीकत है




खास आदमी आम आदमी से चीजें 'लेता' नहीं 'छीनता' है। न देने पर उसका वही हाल किया जाता है जो हिटलर ने यहूदियों का किया था । 


सत्ता और कुर्सी का नशा कुछ भी करवा सकता है। सत्ता में 'जज्बात' नहीं 'जोर-जबरदस्ती' मायने रखती है। 

 राजनीति में आम आदमी की भूमिका बड़ी और खास होती है। सब जानते हैं। सत्ताओं को बदलने में आम आदमी मददगार साबित होता है। ऐसा हमने पढ़ा भी है। लेकिन एक सच यह भी है कि राजनीति और राजनेताओं को आम आदमी की याद तब ही आती है जब उसे उसका वोट चाहिए होते है । 


आम से खास हुआ आदमी जब नेता बनता है तब वह हमारे बीच का नहीं सत्ता का आदमी हो जाता है। उसके सरोकार सत्ता की प्रतिष्ठा तक आकर ठहर जाते हैं। पांच साल में एक ही बार उसे आम आदमी की याद आती है। इस याद में 'स्वार्थ निहित' होते हैं। 

 एक बात नहीं समझ पाया जब देश की सरकारें देश के नेता हर कोई आम आदमी के लिए फिक्रमंद है फिर भी आम आदमी इतना बेजार क्यों है? क्यों उसे दिनभर दो जून की रोटी के लिए हाड़-तोड़ संघर्ष करना पड़ता है? क्यों उसके पेट भूखे और सिर नंगे रहते हैं? क्यों वो कुपोषण से मर जाता है? क्यों वो बेरोजगार रहता है? क्यों उसके कपड़े फटे रहते हैं? क्यों उसकी बीमारी का इलाज नहीं हो पाता? क्यों वो अपने बच्चों को महंगे स्कूलों में नहीं पढ़ा पाता? क्यों वो लोकतंत्र का सशक्त माध्यम होकर भी बेजारा और बेगाना ही बना रहता है? क्यों सत्ता की ताकत उसे रौंदती रहती है? क्यों मंजूनाथ के रूप में उसे मार दिया जाता है? क्यों उसे न्यायालयों से न्याय नहीं मिल पाता? 

 एक बड़ा सवाल है कि लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी आखिर है कहां? पुलिस भी उसे दुत्कार देती है और कार में बैठा धन्नासेठ भी। सड़क या पटरियों के किनारे रहने वाला आम आदमी कभी भी 'खदेड़' दिया जाता है। सत्ताएं उसका झोपड़ा तक तुड़वा देती हैं। 

 स्लमडॉग का आम आदमी आज भी वहीं है जहां और जैसा उसे इस फिल्म में दिखाया गया है। ध्यान रखें, जिन्होंने स्लमडॉग को बनाया है वे आम आदमी नहीं बल्कि खास और ऊंचे रूतबे वाले लोग हैं। उनके लिए स्लमडॉग को मिले आठ आस्कर किसी बड़ी क्रांति से कम नहीं। 

 अगर वाकई यह लोकतंत्र है तो आम आदमी की जुबान खास आदमी के आगे हर दफा दबकर ही क्यों रह जाती है? व्यवस्था का विरोध अगर आम आदमी करता है तो उसे रास्ते से हटा दिया जाता है। सबसे ज्यादा त्रास पक्ष तो यह है कि हमारी न्याय-व्यवस्था भी आम आदमी के खिलाफ ही अपना निर्णय सुनाती हैं। अदालतों में आम आदमी की नहीं खास वर्ग की सुनी जाती है। जाने कितने आम आदमी अदालतों के 'अड़ियल रूख' के शिकार होकर बीच रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आम आदमी का विश्वास न्याय-व्यवस्था से उठने लगा है। 


  यह बात कहने-सुनने में बहुत अच्छी लगती है कि आम आदमी के पास वोट की ताकत होती है। विज्ञापनों में 'अगर आप वोट नहीं कर रहे तो सो रहे हो' जैसी 'जज्बाती लफ्फबाजी' दिखाई जाती है। जबकि सच यह है कि आम आदमी की ताकत को सत्ताएं औने-पौने दामों में खरीद लेती हैं। उन्हें बेच दिया जाता है। उन्हें गुलाम बनाकर रखा जाता है। लोकतंत्र में आम आदमी की स्वतंत्रता की बात करना मुझे 'बेमानी-सा' लगता है। 

 हम नाहक ही इस बात पर खुश होते रहते हैं कि हम 64 साल के स्वतंत्र लोकतंत्र हैं। पर, यह देखने-समझने की कोशिश कभी नहीं करते कि इन 64 सालों में आम आदमी की 'कथित लोकतंत्र' में भूमिका कितनी और कहां तक रह गई है? वो लोकतंत्र में कितना और कहां तक खुद को लोक का हिस्सा समझ और बना पाया है?


क्यूँ बहुत इतराते थे ना कि हम तीसरी पीढ़ी के लोग है अब मजबूरन -तीसरी पीढ़ी में जाना पड़ रहा है न ...
कहा था ना इतना मत कूदो कि कष्ट में पाव जमीन पर रखने से दर जाए ॥

अक्सर लोग कहते है "भई जमाना बादल गया है "
पर आज सरकार का रवैया देखा जाए तो कुछ नहीं बदला ,, बदला है  तो सिर्फ तरीका ,लोगो की कमर तोड़ने का ॥
पहले अंग्रेज़ सरकार लोगो से"लगान" वसूलती थी ,आज उसी लगान का नाम पेट्रोल के दाम बढ़ाओ , गेहु को सड़ने दो ,सब्जियों के दाम बढ़ा दो ,टैक्स में बढ़ोतरी कर दो॥ यह सब "लगान " के बहुवचन शब्द है ,जिसका इस्तेमाल कर आज की सरकार अंगरेजी शासन चला रही है ।

अब इस""लगान" से छुटकारा पाने के लिए क्रिकेट भी नहीं खेल सकते क्यूँ कि मैं और आप तो खेलने से रहे और रहे जो प्रोफेसनल क्रिकेटर वो तो रेव पार्टियों में व्यस्त है , कोई रिश्वत में पस्त है , कोई लड़की छेडने में मस्त है ,और कोई खराब फोरम के चलते सुस्त है ... ऐसे में कोई खेला नहीं हो सकता ॥

15 अगस्त 1947 को आधी रात में पुकार हो गई कि हमारा देश आज़ाद हो गया ...
हालात से तो नहीं लगता देश आज़ाद है ,
अगर आज़ाद होता तो पेट्रोल के दामो में पहिये नहीं लगते , सब्जियों के दाम को पर नहीं लगते , कर के ज्वालामुखी फूट कर पहाड़ नहीं बनाते , और इन सब के जिम्मेदार हम आम जन है ... वैसे "आम" तो फलों का राजा कहलाता पर आज का आम इंसान अपने ही घर में नामर्दों की तरह हो गए ।

आज़ादी आधी रात को घोषित हो गई पर सवेरा ना जाने कब होगा

हमने तो तय कर लिया भईया ... गाड़ी तो वैसे भी नहीं है .... अब साइकल ही ले लेंगे ताकि पेट्रोल का मोहताज ना होना पड़े ... फाइदा ही फाइदा ... बचत की बचत और पर्यावरण को भी नुकसान नहीं ,,,और तो और अपना स्वस्थ भी अच्छा ...
क्यूँ भई है ना फायदे का सौदा ....
चलो थोड़ा पीछे कदम बढ़ाते है ताकि भविष्य सुरक्षित रहे ...

छोड़ो अब गाड़ियों के गुणगान
बनाओ साइकिल को अपनी शान ॥





Wednesday 23 May 2012

मुद्दत से आज थोड़ा वक़्त निकाला
खाने को सिर्फ एक ज़िंदगी का निवाला

करना है तैयार पहले उसका मसाला
चलो देखे ,उसमे क्या क्या है डाला

पहले छल के छिलके छांटों
फिर उस प्यार की प्याज़ को कांटो

लोभ से लिपटे लसहून छिलो
प्यार की प्याज़ के साथ में ले लो

आदत की अदरक का अर्क बनालों
"ना " का नींबू निचोड़ डालो

ध्यान का धनिया खूब मिलाओ
हंसी की हल्दी मिलाते जाओ

नफरत के नमक का नाप समझ लों
"मैं " की मिर्ची का मंत्र परख लो

बर्ताव के बर्तन में ये सब रख लो
दिल के ढक्कन से इसको ढक लो

किस्मत की कड़ाई में तेल चढ़ा दो
आशा की आंच थोड़ी और बढ़ा लो

चाहत का चम्मच चलते रहो
ज़िंदगी का मसाला पकाते रहो

इस मसाले को ज़िंदगी में मिला लो
मिलाकर अब जिंदगी का मज़ा लो

ढल गई शाम इंतज़ार ए यार में
होता है यही अक्सर एतबार में

वो फूल जो किसी के प्यार में खिले
मुरझा गए उसी के इंतज़ार में

दुनियाँ की रौनक युही सिमट गई
बनकर वफा निगाह ए अश्कबार में

साजिस नहीं किसी की किस्मत की बेवफ़ाई
डूबा हुआ जिगर है इंतज़ार में

विरानियों के दायरे ज़मीनों आसमान पे
कहीं कोई खुशी नहीं इख्तेयार में

धड़कन में जागती जीती जवान उमंग
कैद हो गई है किसी मंजर में

मुस्कान ए शाब कोई चाँदनी थी शायद
टूटा सितारा दीदार ए यार में

खुशबू खरीद लाना सस्ती मिले ए जान
गिरती है रोज़ किमाते बाज़ार में 

Tuesday 22 May 2012

नयी पीढ़ी में रिश्तों के मायने और संस्कार ! 
रिश्तों  की अपनी अहमियत होती है और जरूरी है कि हम उस रिश्ते की मर्यादा को समझे और अपने आने वाली पीढ़ी (माँ बाप अपने बच्चो के लिए )को  भी समझाएं। ईट-पत्थरों की दीवारों में जब रिश्तों का एहसास पनपता है तभी वह घर कहलाता है।
आज की high profile और भागदौड भरी जिंदगी में हम रिश्तों की अहमियत को भूलते जा रहे हैं। हमारी busy लाइफ हमे रिश्तों से दूर कर रही है। इसका उसर बच्चो पर  भी पडता है। तभी तो आज के बच्चे रिश्तों की अहमियत को बहुत कम समझते है।
जब बच्चा पैदा होता है तो उसके जन्म से ही उसके साथ कई रिश्ते जुड जाते हैं। लेकिन इन रिश्तों में से कितने ऎसे होते हैं जिन्हें वे निभा पातें हैं। 
ऎसा इसलिए नहीं कि बच्चों को उन रिश्तों की अहमियत का नहीं पता बल्कि इसलिए कि क्योंकि माँ बाप  खुद उन रिश्तों से दूर हैं। 
बच्चों में संस्कार की नींव माता-पिता द्वारा ही रखी जाती है। अगर माता-पिता ही रिश्तों को तवज्जो नही देते तो बच्चे तो इन से अनजान रहेंगे ही।

आज समाज संयुक्त परिवार का प्रचलन घटता जा रहा है

संयुक्त परिवार में बच्चा दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, बुआ के साथ साथ रहकर बडा होता था। आज बच्चा सिर्फ अपने माता-पिता को ही जानता है। एकल परिवार में होने के कारण बच्चे अपने खून के रिश्तों को भी नहीं समझते और जब बच्चा खून के रिश्तों को समझेगा ही नहीं, तो उस में रिश्तों के प्रति सम्मान और अपनापन कहां से आएगा! आज के बच्चे अपनी संस्कृति और सभ्यता से भी अनजान होते जा रहे हैं। आज के अभिभावकों के पास इतना समय ही नहीं है कि वे अपनी सभ्यता और संस्कृति से उन्हें अवगत करा सकें।

आज हमारी जीवनशैली इतनी व्यस्त हो गई है कि व्यक्ति के पास खुद के लिए समय नहीं है। ऎसे में रिश्ते निभाने और बच्चों को उन की अहमियत बताने का समय किस के पास है?
जिंदगी की रफ्तार में इंसान अपने रिश्तों को अनदेखा करता जा रहा है। इसी अनदेखी की प्रवृति के कारण उस के नजदीकी रिश्ते धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं।तो बच्चे कटा समझेंगे रिश्तों की अहमियत  उन्हें तो लगता है, बस यही हमारा परिवार है। बच्चों का कोमल मन तो वही सीखता है, जो वे देखते हैं।


आज जमाना दिखावे का हो गया है। इसी दिखावे के कारण सारे रिश्ते, परंपराएं एक तरफ हो गई हैं। आज की life style high tech  हो गया है। 

अगर फलां रिश्तेदार के पास गाडी है और हमारे पास नहीं, तो कैसे भी कर के हमारी कोशिश होती है कि हम गाडी खरीद लें ताकि हम भी गाडी वाले कहलाएं। 

अभिभावकों के ऎसे आचरण का प्रभाव बच्चों पर काफी पडता है। वे भी बडों की नकल करते हैं और दूसरे बच्चों से कंपीटिशन करते हैं। जहां रिश्तों में कंपीटिशन और दिखावा आ जाता है वहां रिश्तों की स्वाभाविकता खत्म हो जाती है।

आज मैं और मेरे की भावना इतनी प्रगल हो गई है कि व्यक्ति को सिर्फ अपनी पत्नी और बच्चे ही दिखाई देते हैं, माँ बाप भी नहीं ॥ 

बच्चा मां-बाप से ही सीखता है कि उस का परिवार है , बाकी लोग दूसरे लोग हैं।

हम जैसा बोएंगे वैसा ही तोे काटेंगे। आधुनिकता की अंधी दौड में हमें रिश्तों के महत्व को बिलकुल नहीं भूलना चाहिए। हमें अपने बच्चों को पारिवारिक परंपराओं और रिश्तों के महत्व को जरूर समझाना चाहिए।

कभी बच्चों के सामने अपने रिश्तेदारों की शिकायत न करें।
इससे बच्चों के मन में गलत भावनाएं पैदा होती हैं।
बच्चों के सामने रिश्तेदारों के status की बात बिलकुल न करें।
ऎसा बिलकुल न कहें कि फलां रिश्तेदार हमारे बराबर का नहीं है ... 

Monday 21 May 2012


एक झलक ,और थामे नजारें
एक सिफारिस ,और कई इशारे
चाहतों की कश्ती साहिल के किनारें
उठती है लहरें रेत के सहारे
चूमती धड़कनों को ठंडी बयार की साँसे
थोड़ी प्यासी कोशिश ,कभी बूंदें तो कभी बहे
इस ओर से उस ओर दुभाषिया यह दिल
लफ्ज नहीं है पर नज्म है आंहे
कभी मिली थी राहे कहते सुनते यह चौराहे
एक की थी मंज़िल यही ,एक पर हुए फासले
रूखी रही थी दुयाएँ ,चली तो बस लम्हो की हवाए
अक्स भी वही था ढले तो बस शाम के साये
नज़दीक है अब कुछ निशानी मुहाजिम रात कहानी
सीढ़ियों पर रखे है मंज़र , जमीं पर टिके फ़लक के सहारे

Sunday 20 May 2012



रो रहा क्यों व्यर्थ रे मन
कौन अपना है यंहा पर .
मिट गयी हस्ती बड़ों की
है हमारी क्या यंहा पर .

सबको अपनी ही पड़ी है
चल रहे सब भावना में
स्वप्न सब बिखरे पड़े जब
है कान्हा कुछ कल्पना में . .

स्वर्ग-सुख के मोह में आ
नरक में मैं बस गया हूँ .
आज जग के जाल में कुछ
बेतरह मैं फंस गया हूँ . .

नाव तो मंझधार में फंस
धार की आश्रित हुई है
दूर दोनों तट हुए है
और मंजिल खो गयी है .

कौन देगा साथ मेरा
यह प्रबल चिंता सताती . .
मैं अकेला हो गया हूँ
अब नहीं विश्वास थाती 



पैसा,
बन चुका है लोगों का ईमान
कुचल कर रख दी है
इसने लोगों की संवेदनाए।

पैसा,
कहीं ज्यादा बड़ा है
इंसानी रिश्तों से
आपसी प्रेम और भाईचारे से।

पैसा,
गढ़ता है
रिश्तों की बिल्कुल नई परिभाषा।
जिसके चारों तरफ बस
झूठ, फरेब और आडम्बरों की
एक अलग दुनिया है।

पैसा,
काबिज है लोगों की सोच पर
इस कदर जकड़ रखा है कि
सिवा इसके
लोगों को कुछ नजर नहीं आता।

पैसा,
जो चलायमान है
कभी एक जगह नहीं रहता।
फिर भी लोग
इसके पीछे दिवानों की तरह
सारी जिन्दगी भागते हैं।

पैसा,
चाहे जितना एकत्र करो
इसकी लिप्सा कभी खत्म नहीं होती।
क्या हमें
इसका एहसास नहीं होता
कि शायद हम बदल चुके हैं
उस रक्त पिपासु राक्षस की तरह।
फर्क सिर्फ इतना है कि
उसे प्यास है खुन की
और हमें पैसों की।

:-अमित चन्द्र
 

माँ को याद कर के ही दिन की शुरुआत है 
हर दिन माँ के लिए खास है ....


माँ साथ है तो साया ऐ कुदरत भी साथ है 
माँ के बगैर ऐसा लगता जैसे दिन भी रात है 
मैं कहीं जाऊ उसका मेरे सर पर हाथ है 
मेरे लिए तो मेरी माँ ही कायनात है 

लिखना बहुत कुछ है ,पर शब्द कहीं खो गए 
भावनाओं के समन्दर थे कभी,अब दिलो के मैदान भी बंजर हो गए 

साथ चले थे सफ़र में जिंदगी के, कई हमराही 
अब कौन कहे की रास्ते मुड़े थे,या वो ही साथ छोड़ गए 

जल्दी में बहुत हर शख्श यहाँ, सब कुछ पाने की
कि सब्र से सारे शब्द अब बेमायने हो गए ,

आज धन के प्रति ये देखिये समर्पण,
कि धनवान सारे अपने ओर, सब अपने बेगाने हो गए...........

बात करो आज ,मतलब की बस यहाँ पर,
रिश्ते, नाते, प्यार, विश्वास सब गुजरे ज़माने हो गए

वही हँसता है आज हम पर, दीवाना कहकर हमें,
जिसके जुल्मो - सितम से हम, दीवाने हो गए........

ढूंढ़ने निकले थे कि शायद मिल जाये कोई इंसान मुर्दों की इस भीड़ में ,
पर आज टटोला खुद को तो जाना,हम खुद एक जिन्दा लाश हो गए ............


जाग जरा इंसान ,जीवन दो घड़ी का है 
चेत रे नादान ,जीवन सिर्फ दो घड़ी का है 

काल नगाड़ा बाजे सर पर ,क्यूँ बैठा है गाफिल होकर 
यह संसार है देश बेगाना , तुमको यहाँ से एक दिन है जाना 
अपना घर पहचान ,जीवन दो घड़ी का है 

चला चली का सब है खेला ,झूठ सारा यही है झमेला
पल दो पल का जग है मेला ,उड़ जाएगा एक दिन हंस अकेला
इस सच्चाई को जान ,जीवन दो घड़ी का है

जोड़ी है जो पाई-पाई ,सब है माल पराया
क्या करता है मेरी मेरी ,हो जाएगा खाक की ढेरी
छोड़ दे अभिमान ,जीवन दो घड़ी का है

मन मंदिर की ज्योत जगा ले ,नाम ईश्वर का इसमे बसा ले
सुख दुख का है नाम सहायी ,नाम जगत में है सुखदाई
ले सतगुरु से ज्ञान ,जीवन सिर्फ दो घड़ी का है



फिर आज शाम से गुजरी तन्हाई है
वो जो रहते थे मेरी नज़रों में बूंद की तरह
आज फिर वही एक मुलाकात याद आयी है

हर तरफ सदमे की भीड़ सा लगे
वो गीला कभी हल्के हल्के से गिरे
नज़्म की परछाई में आज जैसे झरने का रुख कर आयी है
फिर आज शाम से गुज़री तन्हाई है

दो पलक वक़्त का मतलब जो समझे
मद्दम मद्दम सी चाँदनी में कहीं
हरकतें सोज़ की बन्दिशों इस कदर आज हीना सी रंग लायी है
फिर आज शाम से गुजरी तन्हाई है

मेरे मालिक मेरे खुदा मुझसे एक रोज़ जो मिले
एक सबाब रौशनी का बेदाग हमें भी दिखे
क़यामत की जो रौशनी से रुसवाई है
फिर आज शाम से गुजरी तन्हाई है

ये जो छलका है मेरा घुमान की तरह
है नहीं वो एक मौसम का कैदी
एक कारवां है जलते किस्सो का जो इस तरह नज़र आयी है
फिर आज शाम से गुजरी तन्हाई है
वो जो रहते थे मेरी नज़रों में बूंद की तरह
आज फिर वही मुलाकात याद आयी है
 

सुर्ख सी खुशी है ...नादान सी जरूरत 
धीरे धीरे साँसो को भी हो चुकी एक मुद्दत 
आसमानों के परे कभी खिल सा रहा एक फूल 
कैसे कहें .... है क्या ... कह दु तो तुम हो ना कहूँ तो नज़ाकत 
थोड़ी सी करने का दिल करता है एक शरारत 
बदमाश यह ... ना फरमान सब...उँगलियों पर लिखते है एक नसीहत 

कदमों पे कदम रख के चलना 
थोड़ी दबती कुछ रूहाती 
हर आरज़ू की एक छोटी सी चाहत 
चाहत कि धागे का सिरा 
बंधे अपने हाथों में रखा है 
तेरी नज़दीकियों की अमानत

Thursday 10 May 2012

आज देश में नीचे से ऊपर तक फैले भ्रष्टाचार से लोग उकता गए हैं और अब तो इस तंत्र से बदबू भी आने लगी है। ये जनसैलाब जो सड़कों पर उतरा है, इसके पीछे यही भ्रष्टाचार ठोस वजह है।

इस भीड़ का दुश्मन नंबर एक कौन है ? इस सवाल का सिर्फ एक जवाब है वो है राजनेता। इस सवाल का दूसरा कोई जवाब हो ही नहीं सकता।

पहला चुनाव लड़ने के दौरान जिस आदमी की हैसियत महज एक 1974 माडल जीप की थी, आज वो कई एकड वाले रिसार्ट, आलीशान बंगला, फरारी, पजीरो और होंडा सिटी कार का मालिक कैसे बन गया। नेताओं के बच्चे कैसे विदेशों में पढाई करने के साथ ही मल्टीनेशनल कंपनी में ऊंचे ओहदे पा गए। हम तो यही सोच कर शांत हो  गए कि.


प्यास ही प्यास है जमाने में, एक बदली कहां कहां बरसे।
ना जाने कौन कौन उसे छलकाएगा, कौन दो घूंट के लिए तरसे।। 
 
आज करोडों नौजवानों के हाथ पढाई पूरी करने के बाद भी खाली हैं। अगर पढा लिखा नौजवान किसी भी नौकरी के लिए जाता है, तो जिस तरह पैसे की मांग होती है, वो किसी से छिपी नहीं है। जब देश की सीमा की रखवाली करने के लिए हम सेना में भर्ती होने की बात करते हैं और वहां भी पैसे की मांग होती है, तब सच में शर्म आने लगती है भारतीय होने पर।
 
किसी भी महकमें में नौजवान आवेदन करता है तो उससे खुलेआम पैसे की मांग की जाती है। तब मै सोचता हूं जो लोग लाखों रुपये रिश्वत देकर नौकरी पाते हैं तो हम उनसे ईमानदारी की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।
 
इस मामले को लेकर अगर आप अपने इलाके के सांसद के पास चले गए तो भगवान ही मालिक है। उसके रवैये पर हैरत होती है।
 
कोई राहत की भीख मांगे, तो  आप संगीन तान लेते हैं।
और फौलाद के शिकंजे में, फूल का इंतहान लेते हैं।। 
 
नेताओं ने रिश्वतखोरी,बेईमानी को न सिर्फ बढावा दिया है, बल्कि ये इसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इसलिए हमारा गुस्सा इनको लेकर जितना भी है वो कम है।
 
भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए हमारे पास कानून की कमी नहीं है। उसका कड़ाई से पालन भर किया जाए तो बहुत कुछ समस्या का समाधान हो सकता है। तमाम बडे बडे नेताओं को भ्रष्टाचार के मामले में जेल की हवा खानी पड़ चुकी है। आज भी कई नेता जेल में हैं। सैकडो आईएएस और आईपीएस अफसर भ्रष्टाचार के मामले में पकडे जा चुके हैं। लेकिन कानून का पालन ही ना हो, तो लोकपाल बन जाने से भी कुछ नहीं होने वाला है।
 
अफजल गुरु को सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सजा सुनाए जाने के पांच साल बाद तक उसका मामला गृहमंत्रालय में सिर्फ इसलिए लटकाए रखा जाए, हमें एक खास तपके का वोट चाहिए। मुंबई हमले के आरोपी कसाब को वीआईपी सुविधाएं दी जाएं। आतंकवादियों के खिलाफ सख्त और जल्दी कार्रवाई के लिए बने पोटा कानून को इसी कांग्रेस की सरकार ने खत्म कर दिया।
 
 

Tuesday 8 May 2012

पश्चिमी सभ्यता को हम क्यूं स्वीकर करें 
छोड़ के अपना आंगन गैरों के घर से क्यूँ प्यार करें

आठ इंच की  हील कहीं, कहीं कमर से नीचे पैंट है
खान-पान में पिट्जा बर्गर फिल्मों में जेम्स बांड है
हिंदी भी अब रोने लगी है देख के आज युवाओं को
बात-चीत की शैली में जो अमरिकन एक्सेंट है

जरूरी है क्या इन चीजों को खुद से अंगीकार करें
पश्चिमी सभ्यता को हम क्यूं स्वीकार करें

हेड फोन कानों में लगा है जुबां पे इसके गाली है
बाल हैं लंबे, हेयर बेल्ट और कान में इसके बाली है
देख के कैसे पता चले यह लड़का है या लड़की है
चाल चलन भी अजब गजब है चाल भी इसकी निराली है

कहता है कानून हमारा लड़कों से भी प्यार करें
पश्चिमी सभ्यता को हम क्यूं स्वीकार करें

सरवार दुपट्टा बीत गया अब जींस टॉप की बारी है
वस्त्र पहनकर पुरुषों का यह दिखती कलयुगी नारी है
सोचो आज की लड़की क्या घर आंगन के काबिल है
रोज-रोज ब्यॉ फ्रेंड बदलना फैशन में अब शामिल है

आधुनिकता को ढाल बनाकर इश्क का क्यूं व्यपार करें
पश्चिमी सभ्यता को हम क्यूं स्वीकार करें

जींस कहीं आगे से फटी पीछे से फटी यह डिस्कोथेक जेनरेशन है
भूल के अपनी भारत मां को  पश्चिम में करते पलायन है
होंठ लाल नाखुन भी बड़े यह दिखती बिल्कुल डायन है
गांधी जयंती याद नहीं पर याद इन्हें वेलेनटायन है

भारत की गौरव का कब तक यूं ही हम तिरस्कार करें
पश्चिमी सभ्यता  को हम क्यूं  स्वीकार करें

मेक-अप से सजा है चेहरा इनका बिन मेकअप सब खाली है
बच के  रहना तुम इनसे यह माल मिलावट वाली है
दर्पण पर एहसान करे श्रृंगार करे यह घंटों में
रंग बदलती गिरगिट की तरह है दिल बदले यह मिनटों में

इनसे हासिल होगा नहीं कुछ चाहे हम सौ बार करें
पश्चिमी सभ्यता को हम क्यूं  स्वीकार करें

Tuesday 1 May 2012


इंसाफ की डगर पे बच्चो दिखाओ चल के 
यह देश है तुम्हारा नेता तुम्ही हो कल के । 

गाना है बहुत अच्छा ,सुनने से हो या भावार्थ से , बढ़िया गाना है । पर क्या आज इस देश में इंसाफ का कोई रास्ता खुला है ? 
है इंसाफ का रास्ता खुला है पर वो सिर्फ अमीरों और राजनेताओ के लिए ही रहे है , आम जन को "इंसाफ " शब्द सुनने को मिलता है । 
भ्रष्टाचार और अनैतिकता के दलदल में धंसे लोकतंत्र के चारों स्तम्भ और रिकॉर्ड तोड़ती महंगाई। एक ओर भूख से बिलखते मासूम बच्चे और दूसरी ओर अमीरजादों की गोद में बैठकर बिस्कुट खाते कुत्ते-बिल्लियां। इंसाफ की आस में दर-दर की ठोकरें खाते आम लोग और इसी इंसाफ को चौराहे पर नीलाम करने की कुव्वत रखने वाले रसूखदार। देश के हालात पर तल्ख टिप्पणियां करने वाले मीडिया के बड़े नामों पर उठते सवालों के बीच आए दिन होने वाली आतंकी घटनाएं। यही है बदलते भारत की शर्मनाक तस्वीर! हालात ऐसे हैं कि आमजन के दिलो-दिमाग में 'गणतंत्र की छवि धूमिल हो गई है और वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रात्मक ढांचे को 'गंदातंत्र कहने में भी गुरेज नहीं कर रहा। वजह यह है कि देश के शीर्ष नेताओं, इंसाफ के पैरोकारों, अफसरशाही के दंभ में चूर घूसखोरों और जनता की आवाज होने का दम भरने वाले खबरनवीसों ने आम आदमी की हर उम्मीद तोड़ते हुए उसे ऐसी जिंदगी जीने को मजबूर कर दिया है कि वह न तो इन हालात को बदलने में ही सक्षम है और न ही उसमें यह सब सहन करने की हिम्मत बची है। 

 राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आए दिन धरने-प्रदर्शन किए जाते हैं लेकिन विरोध के इन परम्परागत और घिसे-पिटे तरीकों से आम हिन्दुस्तानी की रोजमर्रा की जिन्दगी में बदलाव आना संभव नहीं है।
 नेताओं को देश को लूटने से फुर्सत नहीं है और अफसर भी उनकी जी-हजूरी कर अपनी तिजोरियां भरने में जुटे हैं। भ्रष्टाचार का ऐसा गंदा खेल खेला जा रहा है कि आत्मग्लानि से जीना दुश्वार हो चला है। आम आदमी न चाहते हुए भी इस गंदे तंत्र का हिस्सा बन जाता है। 

 आए दिन जारी होने वाले सरकारी फरमान उसकी जान निकाल देते हैं। देश में कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा। हर तरफ स्वार्थ और निजी हितों के चलते लूट-खसोट मची हुई है।

एक ओर लोगों के पास खाने को रोटी नहीं हैं, वहीं अरबों रुपए का अनाज गोदामों में पड़ा-पड़ा ही सड़ गया। इस सड़े अनाज में भी साजिश के कीड़े हैं, जो देश के बड़े-बड़े शराब निर्माताओं की झोली भरने के लिए छोड़े गए 

 देश में गरीबी, भुखमरी, नक्सलवाद, बेरोजगारी, महंगाई, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, किसान विरोधी नीतियां और आतंकी घटनाओं जैसी गम्भीर समस्याओं की फेहरिस्त बहुत लम्बी है और इन्हें समूल समाप्त करने के लिए किए जा रहे प्रयास नाकाफी। ऐसे में यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि देश का भविष्य कैसा होगा और इन हालात में सुधार की कितनी गुंजाइश है। राष्ट्रीय समस्याओं के साथ-साथ सामाजिक बुराइयां भी देश को आतंरिक रूप से कमजोर बना रही हैं। जातिवाद, क्षेत्रवाद और भोगवाद ने जहां साम्प्रदायिक सौहार्द की भावना को ठेस पहुंचाई है, वहीं कन्या भू्रण हत्या, दहेज प्रथा, दुष्कर्मों और महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों  ने इसे सभ्य समाज की परिभाषा के दायरे से बाहर लाकर खड़ा कर दिया है। 

शायद एक दशक पहले तक भी किसी ने नहीं सोचा था कि देश में आने वाले कुछ सालों में ही भ्रष्टाचार इस कदर चरम पर पहुंच जाएगा और इस दलदल से लोकतंत्र का कोई भी स्तंभ अछूता नहीं रह पाएगा।
(हास्य )
धरती पर प्रलय होता है और दुनिया समाप्त हो जाती है तभी फिर से नयी दुनिया बन जाती है ,और पुरानी दुनिया के रहस्य जानने के लिए पूरातत्व विभाग के लोग खुदाई करते ,खुदाई में उनको एक सीडी मिलती है ,लोग सीडी को देख अचंभित हो गए कि भई यह क्या चीज़ है ,सब की अलग अलग राय , एक ने कहा हो न हो यह उन लोगो के लिए खाने की थाली रही होगी , तभी दूसरे ने कहा -अगर थाली है तो इसमे छेद क्यूँ है । अरे वहाँ के लोग थे ही ऐसे जिस थाली में खाते थे उसी में छेद किया करते थे 

देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वालों ने यह कभी भी नहीं चाहा था कि हम एक गर्त से निकलें और दूसरे गर्त में गिर जाएं। इससे अच्छी तो गुलामी की स्थिति थी, जिसमें एक तंत्र तो था।

हमने अंग्रेजों की शिक्षा और कानून पद्धति तो अपना ली, परंतु उनसे यह नहीं सीख पाए कि इस तंत्र को किस तरह से चलाएमान करना है। 

लोकतंत्र हमारी आजादी का प्रतीक है लेकिन इसी लोकतंत्र की आड़ में इस देश को बांटने के षड्यंत्र रचे जाते हैं। आए दिन उठने वाली नए राज्यों की मांग विविधता में एकता की विचारधारा पर कुठाराघात है, जिसके गर्भ में राजनीतिक स्वार्थ पलते हैं।

दरअसल, यह हमारा भ्रम है कि हम तरक्की कर रहे हैं। हकीकत तो यह है कि वर्तमान भारत में दो भारत पैदा हो गए हैं। एक अमीरों का भारत और दूसरा गरीबों का भारत।

केवल आंकड़ों में देश की तरक्की दिखाने से कुछ नहीं होगा, इसके लिए जमीनी स्तर पर हर किसी को प्रयास करना होगा। देश में गरीबी, भुखमरी, नक्सलवाद, बेरोजगारी, महंगाई, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, किसान विरोधी नीतियां और आतंकी घटनाओं जैसी गम्भीर समस्याओं की फेहरिस्त बहुत लम्बी है और इन्हें समूल समाप्त करने के लिए किए जा रहे प्रयास नाकाफी। ऐसे में यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि देश का भविष्य कैसा होगा और इन हालात में सुधार की कितनी गुंजाइश है। राष्ट्रीय समस्याओं के साथ-साथ सामाजिक बुराइयां भी देश को आतंरिक रूप से कमजोर बना रही हैं। जातिवाद, क्षेत्रवाद और भोगवाद ने जहां साम्प्रदायिक सौहार्द की भावना को ठेस पहुंचाई है, वहीं कन्या भू्रण हत्या, दहेज प्रथा, दुष्कर्मों और महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों  ने इसे सभ्य समाज की परिभाषा के दायरे से बाहर लाकर खड़ा कर दिया है।

 इस देश के कर्मवीरों ने अपनी जान की बाजी लगाकर भी आजाद हिन्दुस्तान के स्वप्न को स्वीकार किया। अब पुन: उसी जज्बे और जुनून की जरुरत है कि हम इस आजाद मुल्क को सच्चे गणतंत्र के रूप में स्थापित करें।