Thursday 24 May 2012

आम आदमी का लोकतन्त्र कहाँ है ?

देश में हर गरीब आम नागरिक की श्रेणी में आता है , और वही आम नागरिक चुनाव के वक़्त खास आदमी बन जाता है । 
समाज में आम आदमी की भूमिका वहीं तक है जहां से खास आदमी की भूमिका शुरू होती है। यह खास आदमी होता आम आदमी जैसा ही है, किंतु उसका 'शाही रूतबा' उसे आम से खास बना देता है। 
इस अवधारणा को नहीं मानता कि देश आम आदमी के सहारे चलता है। देश खास आदमी के 'आदेश' पर चलता है। आम आदमी खास आदमी के सामने कहीं नहीं ठहरता। या कहें कि उसे ठहरने नहीं दिया जाता। 

आज आम आदमी खास आदमी की शर्तों पर ही जीता है। यह हकीकत है




खास आदमी आम आदमी से चीजें 'लेता' नहीं 'छीनता' है। न देने पर उसका वही हाल किया जाता है जो हिटलर ने यहूदियों का किया था । 


सत्ता और कुर्सी का नशा कुछ भी करवा सकता है। सत्ता में 'जज्बात' नहीं 'जोर-जबरदस्ती' मायने रखती है। 

 राजनीति में आम आदमी की भूमिका बड़ी और खास होती है। सब जानते हैं। सत्ताओं को बदलने में आम आदमी मददगार साबित होता है। ऐसा हमने पढ़ा भी है। लेकिन एक सच यह भी है कि राजनीति और राजनेताओं को आम आदमी की याद तब ही आती है जब उसे उसका वोट चाहिए होते है । 


आम से खास हुआ आदमी जब नेता बनता है तब वह हमारे बीच का नहीं सत्ता का आदमी हो जाता है। उसके सरोकार सत्ता की प्रतिष्ठा तक आकर ठहर जाते हैं। पांच साल में एक ही बार उसे आम आदमी की याद आती है। इस याद में 'स्वार्थ निहित' होते हैं। 

 एक बात नहीं समझ पाया जब देश की सरकारें देश के नेता हर कोई आम आदमी के लिए फिक्रमंद है फिर भी आम आदमी इतना बेजार क्यों है? क्यों उसे दिनभर दो जून की रोटी के लिए हाड़-तोड़ संघर्ष करना पड़ता है? क्यों उसके पेट भूखे और सिर नंगे रहते हैं? क्यों वो कुपोषण से मर जाता है? क्यों वो बेरोजगार रहता है? क्यों उसके कपड़े फटे रहते हैं? क्यों उसकी बीमारी का इलाज नहीं हो पाता? क्यों वो अपने बच्चों को महंगे स्कूलों में नहीं पढ़ा पाता? क्यों वो लोकतंत्र का सशक्त माध्यम होकर भी बेजारा और बेगाना ही बना रहता है? क्यों सत्ता की ताकत उसे रौंदती रहती है? क्यों मंजूनाथ के रूप में उसे मार दिया जाता है? क्यों उसे न्यायालयों से न्याय नहीं मिल पाता? 

 एक बड़ा सवाल है कि लोकतंत्र में आम आदमी की भागीदारी आखिर है कहां? पुलिस भी उसे दुत्कार देती है और कार में बैठा धन्नासेठ भी। सड़क या पटरियों के किनारे रहने वाला आम आदमी कभी भी 'खदेड़' दिया जाता है। सत्ताएं उसका झोपड़ा तक तुड़वा देती हैं। 

 स्लमडॉग का आम आदमी आज भी वहीं है जहां और जैसा उसे इस फिल्म में दिखाया गया है। ध्यान रखें, जिन्होंने स्लमडॉग को बनाया है वे आम आदमी नहीं बल्कि खास और ऊंचे रूतबे वाले लोग हैं। उनके लिए स्लमडॉग को मिले आठ आस्कर किसी बड़ी क्रांति से कम नहीं। 

 अगर वाकई यह लोकतंत्र है तो आम आदमी की जुबान खास आदमी के आगे हर दफा दबकर ही क्यों रह जाती है? व्यवस्था का विरोध अगर आम आदमी करता है तो उसे रास्ते से हटा दिया जाता है। सबसे ज्यादा त्रास पक्ष तो यह है कि हमारी न्याय-व्यवस्था भी आम आदमी के खिलाफ ही अपना निर्णय सुनाती हैं। अदालतों में आम आदमी की नहीं खास वर्ग की सुनी जाती है। जाने कितने आम आदमी अदालतों के 'अड़ियल रूख' के शिकार होकर बीच रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आम आदमी का विश्वास न्याय-व्यवस्था से उठने लगा है। 


  यह बात कहने-सुनने में बहुत अच्छी लगती है कि आम आदमी के पास वोट की ताकत होती है। विज्ञापनों में 'अगर आप वोट नहीं कर रहे तो सो रहे हो' जैसी 'जज्बाती लफ्फबाजी' दिखाई जाती है। जबकि सच यह है कि आम आदमी की ताकत को सत्ताएं औने-पौने दामों में खरीद लेती हैं। उन्हें बेच दिया जाता है। उन्हें गुलाम बनाकर रखा जाता है। लोकतंत्र में आम आदमी की स्वतंत्रता की बात करना मुझे 'बेमानी-सा' लगता है। 

 हम नाहक ही इस बात पर खुश होते रहते हैं कि हम 64 साल के स्वतंत्र लोकतंत्र हैं। पर, यह देखने-समझने की कोशिश कभी नहीं करते कि इन 64 सालों में आम आदमी की 'कथित लोकतंत्र' में भूमिका कितनी और कहां तक रह गई है? वो लोकतंत्र में कितना और कहां तक खुद को लोक का हिस्सा समझ और बना पाया है?


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