Wednesday 11 April 2012

माता के मस्तक पे शत्रु, आतंक की आँधी चला रहा...
भाई तेरा छलनी होके, सीमा पे बेसुध पड़ा हुआ...
कब तक गाँधी आदर्शों से, यूँ झूठी आस दिखाओगे...
कब रक्त पियोगे दुश्मन का, कब अपनी प्यास बुझाओगे...
मैं कर्मों मे आज़ाद भगत, लक्ष्मी के लक्षण चाह रहा...
अब कुछ तो रक्त की बात चले, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
शृंगार पदों को छोड़ कवि, अब अंगारों की बात करें...
शोषित समाज के दबे हुए, कुछ अधिकारों की बात करें...
जब कलम चले तो मर्यादा, कुछ सत्य की उसमे गंध मिले...
इतिहास की काली पुस्तक मे, अब कलम की कालिख बंद मिले...
व्यापार कलम का छिन्न करे वो सत्य सुदर्शन चाह रहा...
कलम क्रांति आधार बने, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
इन नेताओं के डमरू पे कब तक बंदर बन उछ्लोगे...
कब तक आलस्य मे पड़े हुए दुर्भाग्य को अपने बिलखोगे..
कोई भाषा तो धर्म कोई, कोई जाति पे बाँटेगा...
कब घोर कुँहासे बुद्धि के तू ग्यान अनल से छाँटेगा...
इस राजनीति के विषधर का, मैं तुमसे मर्दन चाह रहा...
भारत से हृदय सुसज्जित हो, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
कुछ के तो उदर है भरे हुए, ज़्यादातर जनता भूखी है...
आँखों की नदियाँ भरी हुई, बाहर की नदियाँ सूखी है...
बचपन आँचल मे तड़प रहा, माँ की आँखें पथराई हैं...
क्या राष्ट्र सुविकसित बनने के, स्वपनों की ये परछाई है...
उनसे, जिनके घर भरे हुए, मैं थोड़ा कुंदन चाह रहा...
फिर स्वर्ण का पक्षी राष्ट्र बने, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
कब तक भगिनी माताओं के, अपमान सहोगे खड़े खड़े...
कब तक पुरुषार्थ यूँ रेंगेगा, औंधे मुँह भू पे पड़े पड़े...
कब तक भारत माता को यूँ निर्वस्त्र हो जलते देखोगे...
आख़िर कब तक सौभग्य सूर्य तुम अपना ढलते देखोगे...
पानी से भारी धमनियों मे कुछ रक्त के दर्शन चाह रहा...
अब तो संयम का हार तजो, मैं बस परिवर्तन चाह रहा...
deepak


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