Monday 2 July 2012

किस तरफ ले जा रही है
यह "ज़िंदगी"
पा लेते मंज़िले
फिर भी मन ,निकाल पड़ाता
एक और नई अनजान मंज़िल की तलाश में
कभी हम बदल जाते
कभी वो राहे
जो उस मंज़िल तक ले जा रही है
थोड़ा सुस्ता लिया
पर सफर खत्म नहीं हुआ
फिर चल पड़े
तलाश में उस अनजान मंज़िल की
कहीं चिलमिलाती धूप
कहीं पेड़ो की गहरी छाव
बसे है कहीं घने शहर
कहीं खामोश गाँव
संकरी गलिया से भी गुजरा
आसमान तले खुले मैदान में भी
चलता रहा अपनी धुन में
आंखो में कुछ सपने
जो शायद होंगे कभी अपने
उसी अनजान मंज़िल की तलाश में ..................

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