Wednesday 4 July 2012

ज़िंदगी तेरी हकीकत से कुछ
 यूं बेखबर रहा हूँ
मंज़िल की तलाश में हमेशा  दर -ब -दर भटक रहा हूँ
ज़िंदगी
जाने किस राह किस मोड पर
तू हम पर मेहरबान हो
तू तो कभी ना हो पाई मेरी
पर हमेशा तेरा हमसफर रहा हूँ मैं
अजीब है यह खेल लकीरों का
टूट कर आईने की तरह बिखर रहा हूँ मैं
हालात के डर से कभी दो कदम भी ना चल सका
वक़्त के खौफ से हमेशा अपने घर में रहा हूँ मैं
मुश्किल राहों पर तन्हा चलता गया
हर दौर से कुछ युही गुज़र रहा हूँ मैं
परख रहा हूँ आज अपने और गैरो को
हर रिश्ते में कुछ यू ढल रहा हूँ मैं
इंसान हूँ मैं भी ,मैं भी दिल रखता हूँ
चोट खाकर फिर भी बस चल रहा हूँ मैं
ख़्वाहिश तो एक बूंद अश्क की तरह है
जिसने पलकों पर अपना घर बना लिया है
पर धीरे धीरे उन पलकों से उतर रहा हूँ मैं
सिर्फ चलना ही अगर ज़िंदगी है
तो हाँ बस चल रहा हूँ मैं

1 comment: