Sunday 4 March 2012

हमारे गणतंत्र के समक्ष कई गंभीर चुनौतियाँ हैं. सत्ता और व्यवस्था कार्पोरेट लोकतंत्र की राह पर चल रही है. संविधान द्वारा नागरिकों को दिए गए अधिकार छीने जा रहे हैं. चौतरफ़ा मची लूट, अन्याय, भ्रष्टाचार, हिंसा वगैरह से मुल्क़ का आम नागरिक परेशान है

लोकतंत्र की स्थापना के बाद आजाद भारत में वो क्या है जो बचा रह गया है, और वो किस रूप में आज हमारे सामने है। संविधान कहता है कि लोकतंत्र में सर्वोच्च सत्ता जनता के हाथ में होती है और संसद तथा कार्यपालिका में लोग या तो उसके द्वारा प्रदत्त किए गए अधिकारों के तहत काम करते हैं या जनता के सेवक होते हैं। यानि जनप्रतिनिधियों के पास जो भी संवैधानिक सत्ता है वह उन्हें देश के नागरिकों  के द्वारा दी गई हैं।

देश में लोकतंत्र कितना बचा हुआ है और आम जनता की स्थिति क्या है।  पिछले वर्षों में लोकतंत्र का लगातार क्षरण होता गया है और सारी सत्ता उन गिने-चुने ताकतों के हाथ में रह गई है जो ऐसी योजनाएं बना रहे हैं, जो स्वयं लोकतांत्रिक हितों के विरुद्ध ठहरती है।

हमारे देश की जनता वोट देकर जिस सरकार को बनाती है, उसी जनता के बहुत साधारण और न्यायिक मांगों के विरूद्ध सरकार को सेना और अर्धसैनिक बलों का प्रयोग क्यों करना पड़ रहा है। भोजन, पानी, शिक्षा, चिकित्सा, बिजली, घर, जमीन, अभिव्यक्ति की आज़ादी और ऐसी हर चीज पर से देश के नागरिकों का अधिकार छिनता चला जा रहा है।

कई बार तो ऐसा लगता है कि यह जो कारपोरेट डेमोक्रेसी है वह किसी भी तरह से अतीत की उन सर्वसत्तावादी, निरंकुश व्यवस्थाओं से अलग नहीं रह गई है जिन्होंने अपनी प्रजा से उसका सबकुछ छीन लिया था।

इक्कीसवीं सदी आई थी तो हम सबने बहुत विश्वास और आशा के साथ भविष्य की ओर देखा था। लेकिन पहला दशक बीतने के बाद जब हम पीछे की ओर देखते हैं तो वो दशक आर्थिक घेटालों, भ्रष्टाचार और वैश्विक आर्थिक मंदी का सबसे भयावह दौर भी इसी बीच आया।

भ्रष्टाचार अपने आप में एक ऐसी ताकतवर विचारधारा (आइडियोलाजी) और व्यवस्था (सिस्टम) है, जो दूसरी किसी भी विचारधारा और व्यवस्था को निगल जाती है। आप खुद देख सकते हैं कि इसने समाजवाद और लोकतंत्र, दोनों को विफल कर दिया है।

विडंबना यह है कि हमारे प्रधानमंत्री  दुनिया के सबसे विश्वसनीय आर्थिक विशेषज्ञ राजनेता माने जाते हैं लेकिन उनके कार्यकाल में महंगाई और भ्रष्टाचार इतना बढ़ा कि गरीबों की थाली से दाल और प्याज भी गायब हो गए। उन्नीसवीं सदी के मध्य में आधुनिक हिंदी के पितामह कहे जानेवाले भारतेंदु का नाटक ‘अंधेर नगरी’ आज बार-बार याद आता है- ‘‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।’’ आज आप खुद देख लीजिए,आज हर जरूरी वस्तुओ के दाम हमारे घर का बजट बिगाड़ रहे है ।

इस नई उदारवादी अर्थनीति ने सामान्य भारतीय नागरिकों के सामने एक ऐसा संकट प्रस्तुत किया है जिसकी किसी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी। यह हमारे इतिहास का अब तक का सबसे भयावह दौर है। जिस स्वतंत्र बाजा़र को सभी संकटों का स्वयं विमोचक कहा जा रहा था, आज उसके सामने बड़े सवालिया निशान हैं। चंद मुट्ठी भर व्यापारिक समूहों की आय और मुनाफा बढ़ा कर सकल घरेलू आर्थिक विकास का भ्रम पैदा करने वाले इस बाज़ार ने बेरोजगारी, महंगाई, कर्जदारी, आर्थिक-सामाजिक विषमता की डरावनी खाई जिस तरह पैदा की है, उसका भविष्य डरावना लगता है।

देश में हर सत्ताइस मिनट पर एक नागरिक आत्महत्या कर रहा है। आंध्र और विदर्भ में गरीबी और कर्ज में डूबे किसानों की हताशा के साथ शुरू हुआ आत्महत्या का संक्रामक रोग मध्यप्रदेश, बुंदेलखंड और उत्तर प्रदेश तक पहुंच गया है। सरकार जीडीपी की उपलब्धियों के नाम पर पूरे देश को अंधेरे में नहीं रख सकती। अपनी जिस सेना पर हम कभी गर्व करते थे, वह सेना भी अब भ्रष्टाचार की चपेट में आ चुकी है। अंधाधुंध दौलत की हवस कहां तक जा पहुंचेगी, हमने कभी यह सोचा भी नहीं था।

आम नागरिक को तो ट्रैफिक का उल्लंघन करने पर भी जुर्माना भरना पड़ता है, किसान लगान देता है, जनता लगभग सभी शासकीय अनुदेशों का पालन करती है। लेकिन जो स्वयं शासक वर्ग है वह संविधान की मर्यादाओं के बाहर जा चुका हैं। यह बड़ा ही कठिन और चुनौतीपूर्ण समय है।

नई अर्थनीति ने एक ऐसी लुटेरी व्यवस्था को जनम दिया है, जिसमें आज हमारे देश की सारी राष्ट्रीय संपदा और संप्रभुता ही नहीं सामान्य नागरिकों का जीवन भी खतरे में है। मानवाधिकारों, उपभोक्ताओं के हितों और नागरिकों के तकाजों की कोई परवाह इस शासक वर्ग में नहीं रह गई है।

राजधानी में राजपथ पर राष्ट्रपति भवन के सामने नए-नए टैंकों, लड़ाकू जहाजों, मिसाइलों की प्रदर्शनी बजाय प्याज, लहसुन, प्राणरक्षक दवाइयों, विस्थापितों के पुनर्वास के लिए बने मकानों के मॉडल और देश के गरीब परिवारों के उपयोग में आ सकने वाले स्कूलों-अस्पतालों-बिजलीघरों-नलकूपों के नमूनों और उन जरूरी सामग्रियों का प्रदर्शन होना चाहिए जिनकी जनता को जरूरत है। हम सब वही देखना चाहते हैं। 
by  uday prakash ..

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