Saturday 3 March 2012

बरसों से अरमां सजाए
हाथों में मेहँदी लग जाए
खुश थी कितनी मुद्दत बाद
मिलने वाली थी मन की मुराद
आने वाली थी बारात
बस चंद रोज ही शेष बचे थे
मदमस्त गाँव गलियारे जाती
झूम झूम जंगल में गाती
अकस्मात् एक दिन जंगल में
शेर खड़ा था उसके पास
उसने कहा मुझे छोड़ दो
मेरे सभी अरमां हैं बाकि
मुझे मेहँदी लगवानी है
दुल्हन बन पीया घर जाना है
शेर में जज्बात कहाँ
दिया झपट्टा मार गिराया
पल में प्राण पखेरू उड़ गए
रह गए सभी अरमां अधूरे
वो तो पशु था
दिल भी पशुवत
हम मनुष्य हैं फिर भी पग पग
पशुता ही दिखलाते हैं

बकरी को चारा दिया
हिष्ट पुष्ट तंदुरुस्त बन जाए
मुर्गी को दाना दिया
अंग अंग कोमल हो जाए
मछली को भोजन दिया
निगलें तो कांटा न आए
सब जीवों को हमने पाला
स्वाद स्वाद में वध कर डाला
बरछी भाला चाकू छुरी से
कितने जीव कर दिए हलाल

तब तो तनिक भी रूह न कांपी
अपने पाँव में शूल चुभे तो

कैसी चीखें चिल्लाते हो

मूक निरीह कमजोर जीव का

मांस चाव से खाते हो

धर्म कर्म उपदेश की बातें
मानव क्यूँ दोहराते हो
सोचो गर तुम्हें कोई मारे
अंग अंग छिन्न भिन्न कर डाले
भुने आग में
तले तेल में
हल्दी मिर्च का लेप लगाए
शरीर तुम्हारा मृतप्राय पर
आत्मा रह रह चिल्लाए
एक माँ की ममता हो तुम
एक पिता का गहन दुलार
पत्नी के माथे की बिंदी
बहन की राखी से बंधा प्यार
भूखे बच्चों की रोटी हो
सबकी आँखों का मोती हो
तुम्हे कोई स्वाद की चाह में मारे
सोचने से भी घबराते हो
वो जीव भी माता पिता हैं
वो भी किसी की आँख के तारे
तो फिर क्यूँ तुम मनुष्य होकर
अधम पशु बन जाते हो

स्वाद स्वाद में

हत्या दर हत्या

कितने पाप कमाते हो ।
 

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